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अटका मन भटका मन

अटका मन भटका मन  

  आज मैं सुदूर विदेश में अपने कमरे में आँख बंद कर लेटी हूँ पर मन मुझसे निकल उड़ा जा रहा है .थामने की बड़ी कोशिश की इस बेकाबू घोड़े सदृश्य  मन को, पर असफल अशक्त हो निढाल हो गयी .सात समुन्दर पार कर , बिन पंखों का ये बावरा मन जा पहुंचा उस गाँव जहाँ मेरा बचपन बीता था  .ऊँचे पहाड़ी पर जा टिका जहाँ से बचपन का वो जहाँ अपने विस्तारित रूप में दृगों में समाहित होने लगा .बाबूजी  संग इस पहाड़ी पर ,इसी पेड़ के नीचे कितने रविवार मनाये होंगे .मन की आँखों से सारा बचपन एक बार फिर जी लिया .उस गाँव के एक एक दरवाजे को मैंने दौड़ कर छू लिया ,बाबूजी  के कंधे पर भी चढ़ लिया  . माँ  के गोद में भी झपकी ले लिया .मन तर हो गया .मैं अब जागने को तत्पर हूँ पर मन वहीँ देस में ही कहीं अटका रह गया शायद किसी और गली चौबारे द्वारे .......

@मौलिक व् अप्रकाशित 

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Comment by Rita Gupta on May 30, 2015 at 12:01am

आदरणीय मिथिलेश जी ,इस मंच पर यह मेरी पहली रचना है . आपको पसंद आई धन्यवाद .


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Comment by मिथिलेश वामनकर on May 29, 2015 at 11:37pm

बहुत सुन्दर रचना....

आदरणीया रीता जी इस प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई निवेदित है.

सादर 

Comment by Rita Gupta on May 29, 2015 at 10:40pm

धन्यवाद् शिखा कौशिक जी ,मन की इस उड़ान को पसंद करने हेतु .

धन्यवाद विनय जी ,शरीर कहीं भी  हो पर मन तो देश में और अपनों में ही अटका रह जाता है .

Comment by shikha kaushik on May 29, 2015 at 9:48pm

बहुत सुन्दर भावों को प्रस्तुत किया है आपने इस संस्मरणात्मक लघु-कथा के माध्यम से .बधाई 

Comment by विनय कुमार on May 29, 2015 at 9:30pm

सुन्दर लघुकथा आदरणीया रीता गुप्ता जी , मन के आँखों से सब कुछ देख लिया | स्वागत आपका..

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