क्या कहूँ सच का हाल इस दौर में मित्रों
मैंने अपनों से सच कहने की सजा पायी है
अब तो हद है जुल्मों सितम गरीबों पर
आम को इमली न कहने की सजा पायी है
अब तो जुर्म करने वाले भी बेबाक घूमते हैं
कईयों ने तो जुर्म सहने की सजा पायी है
बक्शा नही प्रभु ने मेरे आलिन्द गिरा दिए
मैंने माँ को बेघर करने की सजा पायी है
टूटा है दिल मेरा आँखों में सिर्फ पानी है
हाँ मैंने इश्क़ करने की सजा पायी है
कैद हैं पिजड़े में, माँ संग नीड में रहने वाले
बस खुले आसमान में उड़ने की सजा पायी है
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"मौलिक व अप्रकाशित "
Comment
आ. गिरिराज भंडारी जी ,,आगे से रचना की विधा जरुर लिखूंगा ,,,आपको बात अच्छी लगी मेरा लिखना सफल हुआ |आ. वैसे तो ये गजलनुमा कविता है |
आ. Samar kabeer जी , JAWAHAR LAL SINGH जी , Dr. Vijai Shanker जी , Mohan Sethi 'इंतज़ार' जी ,,रचना को सराहने हेतु आप सभी का आभार |
बहुत सुन्दर भाव के साथ प्रस्तुति!
आदरणीय , रचना किस विधा मे है , लिख देना उचित होता है , ताकि हम पाठक उस लिहाज़ से रचना का मूल्यांकन कर सकें । बहर हाल आपकी बातें अच्छी लगीं , रचना के लिये आपको बधाई ।
वाह, वाह, बस खुले आसमान में उड़ने की सजा पायी है , क्या बात है, बहुत सुन्दर प्रस्तुति, आदरणीय महिर्षि जी, बधाई, सादर।
वाह ...टूटा है दिल मेरा आँखों में सिर्फ पानी है हाँ मैंने इश्क़ करने की सजा पायी है ...बहुत ख़ूब जनाब
आ.बड़े भाई krishna mishra 'jaan'gorakhpuri जी ,,रचना पर आपकी प्रतिक्रिया ,,मुझे हौसला देते है |
आ. डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव इस उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया पर आपको सादर प्रणाम !
आम को इमली न कहने की सजा पायी है!! वाह क्या बात है भाई महर्षि! बहुत सुन्दर!
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