1212 1122 1212 112/22
वो मेरे सामने आने पे मुस्कुरा न सके
नज़र झुकाई जो इक बार तो उठा न सके
हज़ार कोशिशें की रश्क़ तो छुपा न सके
मगर हँसी में मेरी बात भी उड़ा न सके
उन्होंने जिक्र मेरा छेड़ तो दिया सरे बज़्म
वही बातें मेरे होते वो दोहरा न सके
हर एक सम्त से नज़रें उठीं हमारी तरफ
कि कहते कहते भी वो हालेदिल सुना न सके
बस एक रोज़ की थी ज़िन्दगानी फूलों की
वो बदनसीब रहे जो चमन सजा न सके
न पूछिये मेरी बेचारगी का आलम, आह!
कि आते आते भी ये अश्क़ बाहर आ न सके
मौलिक अप्रकाशित
Comment
बहुत खूब सूरत ग़ज़ल है शिज्जू भैया ,आ० समीर भाई जी की बात से सहमत हूँ उन्होंने मिसरों को हल भी बता दिया जो स्वागत योग्य है
)"वही बातें मेरे होते वो दोहरा न सके"---मगर वो लफ़्ज मेरे होते दोहरा न सके ..ऐसे भी कर सकते हैं
बस एक रोज़ की थी ज़िन्दगानी फूलों की
वो बदनसीब रहे जो चमन सजा न सके---लाजबाब
बहुत सुन्दर ग़ज़ल हुई दिल से दाद कबूलिये
अहहाहा! दिल बस गुनगुनाये जा रहा है!रंग चढ़ गया है इस गजल का! लाजवाब! लाजव़ाब!
बहुत ही दिलकश गजल हुयी है आदरणीय शिज्जू सर! अभिनन्दन!
आ० शिज्जू भाई
आपकी गजलो से ही सीख रहा हूँ. बेहतरीन प्रस्तुति .
बस एक रोज़ की थी ज़िन्दगानी फूलों की
वो बदनसीब रहे जो चमन सजा न सके
न पूछिये मेरी बेचारगी का आलम, आह!
कि आते आते भी ये अश्क़ बाहर आ न सके,,,,,,वाह ,,प्रणाम आपको आ. शिज्जु "शकूर" जी ,,कमाल की गजल है |
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