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वक़्त ये चलता है चलते हुए सूरज की तरह
तन मेरा जलता है जलते हुए सूरज की तरह
रोशनी इल्म की दुनिया में तभी बिखरेगी
तम को निगलोगे निगलते हुए सूरज की तरह
जुल्फ की छांव तले शाम गुजारो अपनी
अब्र में छुप के बहलते हुए सूरज की तरह
राह मुश्किल है जवानी की संभलकर चलना
कितने फिसले हैं फिसलते हुए सूरज की तरह
अब्र की छांव में हर रोज छुपाकर खुद को
इक कमर ने छला छलते हुए सूरज की तरह
चाँदनी शब् में हैं जीने के बसर जो आदी
उनको खलते दिए खलते हुए सूरज की तरह
काम कुछ करना हो आशू तो यकीनन करना
चीर के तम को निकलते हुए सूरज की तरह
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय गिरिराज भाई साब ..आदरणीय विजय सर ...आप सबके मार्गदर्शन , हौसला अफजाई और मार्गदर्शन से मुझे रचना धर्मिता की नूतन उर्जा मिल्ती है ..सादर धन्यवाद के साथ
आदरनीय नूर जी रचना को आपका स्नेह मिला मेर लिए उत्साह्वार्धक है ''सादर धन्यवाद के साथ
सुन्दर गज़ल के लिए बधाई।
आ. आशुतोष भाई , अच्छी गज़ल कही है , बधाइयाँ ।
वाह वा..बहुत ख़ूब
काम कुछ करना हो आशू तो यकीनन करना
चीर के तम को निकलते हुए सूरज की तरह,,,,,,बढिया सन्देश ,,आ. इस खूबसूरत गजल पर आपको आपके अनुज का प्रणाम |
आदरणीय श्याम नारयण जी रचना पर आपकी उत्साहित करती प्रतिक्रिया के लिए ह्रदय से आभारी हूँ सादर
आदरणीय गोपाल सर.. प्रयास मैं यू ही करता रहूँगा बस आपका आशीर्वाद सदा मेरे साथ रहे ..सादर प्रणाम के साथ
आदरणीय समर कबीर जी ..मैंने अपने समझ के अनुरूप लिखा ..तकनीकी रूप से ये गलत हो सकता है ..बचपन में सीमेंट की बने स्लोप को हम फिसलनी कहते था ..वाटर पार्क में भी कुछ ऐसा देखा ..फिसलनी के अर्थ के सन्दर्भ में मैंने फिसलन का उपयोग किया ..आसमान से सूर्या का सागर में गिरना पानी के छोटे से टैंक में जाता मेरा वो सीमेंट का स्लोप लगा ..और मैंने यह लिखा ..अगर गलत है तो मैं इस शेर को हटा दूंगा ..आपके मशविरे और प्रतिक्रिया के लिए ह्रदय से धन्यवाद सादर .
// काम कुछ करना हो आशू तो यकीनन करना
चीर के तम को निकलते हुए सूरज की तरह // । वाह , बहुत उम्दा पंक्तियाँ , बधाई क़ुबूल करें आदरणीय डॉ आशुतोष मिश्रा जी.
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