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दर्पण को देख हुस्न यूं शर्माने लगा है
लगता खुमारे इश्क उस पे छाने लगा है
उंगली में चुनरी लिपटी है दांतों से दबे ओंठ
इक दिल धड़क धड़क के नगमे गाने लगा है
जगते हैं पहरेदार भी आँखों के निशा में
ख्वावो में उनके जबसे कोई आने लगा है
रुक-रुक के सांस चलती है नजरों में उदासी
सीने से दिल निकल के जैसे जाने लगा है
कलियों के साथ देख के भंवरों को वो तन्हा
कुछ कुछ समझ में माजरा ये आने लगा है
कितनी दफा ही आ चुका सावन का महीना
क्यूँ इस दफा गुलों को यूंँ बहकाने लगा है
जूही गुलाब चंपा से जूडा यूंँ सजाकर
इक गुल हसीं फिजा को ही महकाने लगा है
जुल्फें जो हुस्न ने कभी बांँधी थी जतन से
जुल्फे बही हवा में क्यूँ लहराने लगा है
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आपके ही अंदाज़ की ग़ज़ल हुई है, आदरणीय आशुतोष जी.
शुभ-शुभ
आदरणीय डॉ आशुतोष मिश्रा जी, बेहतरीन और ख़ूबसूरत ग़ज़ल हुई है दिल से दाद क़ुबूल फ़रमाऐं ।
प्रिय कृष्णा जी ..रचना पर आपकी स्नेहिल उत्साहित करती प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक धन्यवाद सादर
आदरणीय समर कबीर जी ..मेरी हर रचना को आपका स्नेह और मार्गदर्शन मिलता है इससे मुझे और मुझ जैसे नए लिखने वालों को बहुत सम्यक जानकारी हासिल होती है ..मैं आपके मार्गदर्शन के अनुरूप संसोधन का प्रयास करूंगा ..ह्रदय से धन्यवाद के साथ सादर
बेहतरीन मतला के साथ सुन्दर गज़ल हुयी है आ० आशुतोष सर!हार्दिक बधाई!
आदरणीया कांता जी ..रचना आपको पसंद आयी .मेरा प्रयास सार्थक हुआ ..आपकी उर्जा प्रदान करती प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक धन्यवाद सादर
आदरणीय नरेन्द्र जी रचना पर आपकी स्नेहिल प्रतिक्रिया के लिए तहे दिल धन्यवाद सादर
आदरणीय गोपाल सर ..आपके आशीर्वाद से मन गदगद हो गया आपके स्नेह से ही ये सब संभव हो पाता है सादर प्रणाम के साथ
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