"सुनो! आजकल न्यूज चैनल पर अदालती कार्यवाही की खबर सुनकर, यूँ लगता है कि क़ानून तेज और सबसे ऊपर है"
"हाँ! बिलकुल सही कह रही हो. यार! रिमोर्ट कहाँ है..? थोड़ा वाल्यूम कम करना, वकील साहब का फोन आ रहा है "
"नमस्ते वकील साहब! कहाँ तक पहुंचा मामला..? अगली तारीख कब है..? "
"उन लोगों ने कहीं से कुछ साक्ष्य प्रस्तुत किये है हम कमजोर पड़ सकते हैं. और अगली तारीख इसी माह है..?
"इसी माह्ह्ह.. वकील साहब! इतनी गर्मी पड़ रही है. मेरा परिवार के साथ सैर-सपाटे पर जाने का प्लान है. आप ऐसा कीजिये न. पिछली बार की तरह डॉक्टर से मिलकर... बाकि फिर साहब , आप तो न्याय के मन्दिर के पुजारी ठहरे.."
जितेन्द्र पस्टारिया
(मौलिक व् अप्रकाशित)
Comment
आपका आत्मीय आभार, भाई महर्षि जी
सादर!
लघुकथा पर आपकी सकारात्मक प्रतिक्रिया हेतु आपका ह्रदय से आभार,आदरणीय डा.गोपाल जी
सादर!
आदरणीय विनय जी. लघुकथा पर आपकी स्वीकारोक्ति ,सार्थकता का प्रमाण है आपका हार्दिक आभार
सादर!
आप से सहमत हूँ, आदरणीय डा.विजय जी. किन्तु न्याय है या अन्याय, इस परिणाम तक पहुँचने के लिए समय की आवश्यकता होती है और इसी बीच कई दाव खेल लिए जाते है. आपकी उपस्थिति से बहुत मनोबल मिलता है, सर. आपका ह्रदय से आभार
सादर!
बढ़िया लघु कथा हुई किसी भी प्रणाली में सुधार हम लोगों के बिना नहीं हो सकता और हम लोग ही हैं जो सुधर नहीं सकते तो सुधार क्या ख़ाक होगा ,बहुत बहुत बधाई इस व्यंग पर भैया जितेन्द्र जी
उजास का मंदिर और न्याय के देवता, क्या बात है !
// न्याय के मंदिर के पुजारी ठहरे //, अच्छी लघुकथा हुई है आदरणीय जीतेन्द्र जी , बधाई .
कानून का इस्तेमाल न्याय के लिए हो, न की अन्याय या बाधाएं बढ़ाने के लिए , यह देखना स्वयं क़ानून का काम है ,
विषय पर सार्थक प्रस्तुति. बधाई, प्रिय जीतेन्द्र जी। सादर।
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