उमठी दाल
पायलगी करके मैं शिवनाथन बाबा की सामने वाली खटिया पर बैठ गया और वो रोटी के कौर को दाल में डुबाने लगे |
“इ साली मटर दाल भी बहुत तंग करती है |कभी भगोनी तले आंच धर के ज्ठाइन लगती है तो कभी पानी में घुलती ही नहीं |पकना तो जैसे इसके स्वभाव में है ही नहीं |”
“दादा जी दाल ,क्या भदेली में पकाते हैं ?” मैंने पूछ लिया
वो कुछ देर खाने में तल्लीन रहे और फिर झटके से बोले
“और नहीं तो क्या हमारे पास क्या कुकड़ धरा है |एलुमिनियम हाड़ी-मटिया के चूल्हे की आग पर ही हमारे यहाँ खाना बनता है |वैसे कुकर-स्टोव लाए थे - - - -जब वो कुकुरिया अपनी पिल्ली के साथ आई थी |पर उसके जाने के बाद जब इ सीटी देना बंद कर दिया तो दुल्हिन ने उन्हें करईन(अलग किए गए मांसाहार के बर्तन ) के साथ पटक दिया |”
“पर दादा हम तो सुने कि उ लोग ब्राह्मण थे फिर इ सब - - - - - इतने दिनों तक ठाकुरों के घर में दो औरतों का पड़े रहना ?”मैंने कुछ डरते-डरते पूछा |
“अच्छा तो तुम भी हमारी खिल्ली उड़ाने और मज़ा लूटने आए हो ?” वो कुछ गुस्से से बोले
“नाहि बाबा,हमारी ऐसी कोई मंशा नहीं है ,लोग तरह-तरह की बाते बना रहे हैं |बात दिल्ली तक हमारे कानों में पहुंची |पर असल बात तो आपके घर की है |आप ही बता सकते हैं |अगर आप को बुरा ना लगे तो |”मैंने विनम्रतापूर्वक आग्रह किया |
तब तक उन्होंने खाना खत्म करके खाली बर्तन चौकी के नीचे धर दिया था और कुछ सोंचते हुए वहीं रखी नीब की सींक से दांत खोदने लगे |
फिर सहसा पूछ बैठे –“क्या तुम जानते हो कि खाने का कौन सा रेशा तुम्हारे दांत में फँस सकता है “
“नहीं !”
“अच्छा ,ये तो जानते ही हो कि दांत में कब ज़्यादा जूठा फंसता है |”
“जी,जब खोड़रा(मसूड़े से खुले या आधे टूटे दांत ) हो या खाना ज़्यादा मोटे रेशे का हो माने मीट साग आदि - - -“
“सही पकड़े बच्चा |हमारे साथ भी यही हुआ |देख ही रहे हो घर की हालत |एक पेंशन से ही सारा घर चल रहा है |खेती-बाड़ी बची नहीं है |ऐसे में उ मतारी-बिटिया जिस तरह का फोकस करीं हम क्या कोई भी चुंधिया जाता |और उस समय तो लोगों को इसी बात की जलन थी कि वो हमारे यहाँ क्यों आईं ?”
“गाँव वाले कहते हैं कि उस समय आपने बाकि लोगों को अपने यहाँ उठने-बैठने से मना कर दिया था ?”
“वो जनानी कैसी भी रहीं हों |थी तो हमारी मेहमान ना |बमई की थीं तो थोड़ा उठने-बैठने और खाने-पहिरने का ढंग भी वैसा था |इ सब निठल्ला लोग आकर तांका-झांकी करता और तरह-तरह की बात बनाता और उ लोग भी दिक्कत महसूस करती थीं |”
“मैंने तो सुना था कि उन लोगों के आने से आपके घर का माहौल ही बदल गया था |बिट्टू का एक पैर घर में रहता और एक बाज़ार में - - -“
“परदेश की खाई-पहरी थीं यहाँ का सादा खाना-पीना उन्हें हजम नहीं होता था |अब चाहे कोलड्रिंक मंगाए ,बिसलरी या समोसा-चाट पैसा तो उन्हीं का जाता था ना !और खिलाती तो वो सभी को थी |”
“सुना था कि नहाती भी बिसलरी से थीं |बिसलरी का ही no हज़ार खर्चा लगा था |”
“नब्बे दिन रही थीं तो हवा से प्यास तो बुझाएगी नहीं ना |- - - -- -फिर लोगों को काहे मिर्च लग रहा है |हमारे घर रह कर गई |हम तकलीफ नहीं - - - - -सब यही समझते हैं कि मोटी आसामी थी पक्का बाबा कुछ झटके होंगे |अरे !पैसा आया होता तो क्या हम भी रहर(तूर ) दाल और मुर्गा-मीट नहीं खाते |” उनका चेहरा फिर गुस्से से दनदनाने लगा था |
10 मिनट चुप्प बैठने के बाद मैं उठने लगा तो उन्होंने फिर मुझे बिठा लिया
“बस इतना ही जानना था |आधा सुनोगे और बाकी आधा गढ़ के नई बात फैलावोगे इसलिए जो जानना है हम से पूरा जान लो |”
“मुझे लगा आपको बुरा - - - -“
“नहीं ,तुम पूछों |”
“वो लोग यहाँ तक कैसे आईं ?क्या कोई पुराना - - -“
“पुराना नहीं नया परिचय - - - - - -वो क्या होता है मोमाईल पर जिस पर लोगों का फ़ोटो आता है और लोग दोस्ती करते हैं | फsssss से ,अरे क्या था नाम नहीं चढ़ रहा है |”माथे पर बल देते हुए याद करते हैं
“फेसबुक |”
“हाँ ,पंकज(बड़ा पोता ) की उस लड़की की मताहरी से दोस्ती हो गई थी और संजय(छोटा पोता) भी पंकज के मोमाईल में था |उ लडकिया संजय से दोस्ती गांठ ली |बल्कि उ लोग थीं भी बनारस की |और बमई में बनारस-आज़मगढ़ अलग थोड़े ही होते हैं |”
“फिर |” मैंने उत्सुकता बरकरार रखते हुए पूछा
“पंकज गाँव आया तो वो दोनों भी चिपक आईं |”
“पंकज ने पहले कुछ बताया नहीं था ?”
“पता नहीं ,क्या साठ-गाँठ थीं,हमसे बस ट्रेन वाले दिन बताया कि साथ में बनारस के दो साथी आ रहे हैं |- - - - -कुछ दिन यहीं रहेंगे |”
“फिर |”
“वो तो जब दरवाजे पर आकर बोलेरो से वो लोग उतरे और उन दोनों ने हमारा पैर छुआ तो हमारा माथा ठनका - - - - -साला,कहीं कुजात से शादी-वादी करके तो नहीं आ गया |आज की महेरियो का क्या सिन्नुर भी तो नहीं लगाती और कोर्ट में दो साईन से हो गया शादी |ऊपर से उनका स्टेनर देखते हुए ये चिंता भी सताई कि अगर ये लोग दो दिन भी ठहर गए तो हमारा तो दिवाला ही निकल जाएगा |”
“तो सच कैसे सामने आया ?और उन लोगों ने खर्चापानी क्यों मंजूर किया |”
“थोड़ा इधर-उधर की बात के बाद लरकिया की माँ बताई कि उ बनारस की चौबे है |बमई में अपने पति की जगह रेल में नौकरी पाई है |बमई में भी दो घर है और बनारस में भी - - - - -परिवार के नाम पर बस बिटिया है और वो उसके लिए लरका ढूढने निकली है |- - - - - -उ खुद ही बोली की बाबाजी आपके घर में पैसे का दिक्कत लगता है हमे खाने-पीने का शौक है और भगवान की कृपा से पैसे का कोई तंगी नहीं है |अपने खाने-पीने का सारा भार हम खुद उठा लेंगे बस सोने-बैठने का सहारा दे दो | “
“पर सुनने में तो ये आया था कि वो औरत संजय के लिए बोलेरो और भोलेनाथ के लिए तिपहिया निकलवा रही थी |”
“मत पूछो ,साली ,हवा बना रही थी ,मीठी-मीठी बाते करती और लग्घी से पानी पिलाती शायद चरी डाल रही थी की मछली फँस जाए |”
“मतलब ,कैसे बाबा ,बात समझ नहीं आई |”
“50-60 हज़ार तो टूटा ही उसका |सारे घर को कपड़ा-लत्ता दी ,संजय की अम्मा को छागल-बिछिया ,कहारिन को चाँदी की अंगूठी |”
“फिर भी बाबा आप उसे गरिया रहे हैं !”
“गिरगिट रंग बदलता है तो बस इसीलिए की वो अपने शिकार को छल सके |कई बार शिकार फंसता है और कई बार बच निकलता है पर गिरगिट तो गिरगिट ही रहता है |”
“पर उसने क्या छल किया ?आप तो खुद कह रहे हैं कि पैसे उसी ने खर्च किए ?”
“बोलती कि संजय को बोलेरो निकलवा दूंगी ,आप की आँख बनवा दूंगी ,बनारस वाला घर बंद रहता है आप लोग चलकर रहिए |बमई रेलवे में मेरी बहुत जान-पहचान है किसी को नौकरी चाहिए हो तो मुझे बताए - - - - मेरी पहचान से सराफे से एक लाख तक का गहना बनवा ली और दिन देकर उसे टरकाने लगी |रोज़ सराफा दरवाजे पर आकर तगादा करता और आड़े में मुझे कहता कि अगर इसने नही दिया तो मैं आप से लूँगा |जीना हराम हो गया था |
“तो क्या आप बनारस में इसका घर देखने गए और गाड़ी का क्या हुआ ?”
बनारस में एक घर ले तो गई थी पर पता नहीं इसी का था या किसी और का - - - - -दो बार गाड़ी निकलवाने के लिए एजेंसी ले गई पहली बार बहाना लगाई कि पैसा कम पड़ रहा है कुछ पैसा उसके अकाउंट में डाल दिया जाए तो चैक काट कर दे देगी |जब महेश बोले कि जो नकद कम पड़ रहा है वो उतना एजेंसी में जमा करा देते हैं बाकि का वो चैक दे दे तो वो टाल गई कि बमई से वो पैसा मँगा कर ही गाड़ी निकलवाएगी |दूसरी बार जांचा गया तो उसके खाते में कुल चालीस हज़ार ही थे |एजेंसी वाला तो उसके वादे पर गाड़ी घर पर छोड़ने को तैयार था पर मैंने ही मना कर दिया वरना और फजीहत होती |
“फिर उसने गाड़ी निकलवाने की दुबारा कोशिश नहीं की |”
“एक दिन फिर अपना रंग दिखाई |हमसे बोली पिताजी हम बामन आप राजपूत |आजकल बच्चे तो किसी भी जात में चले जाते हैं |फिर हमे बेटी के लिए लड़का चाहिए हमे आपका संजय पसंद है फिर सुधा और संजय भी घुलमिल गए हैं - - - - -हमारा माथा ठनका अच्छा तो तब से यही दाल पक रही है | - - - - - उसको ताड़ने के लिए हमने भी कह दिया ठीक है पहले संजय के नाम गाड़ी निकलवा दो और अपना बनारस वाला घर करवा दो | - - - तो वो बोली शादी के बाद सब संजय का ही तो है |और मेरा विचार है कि जगहंसाई से बचने के लिए कोर्ट में शादी करवा देते हैं |”
“तो आप ने फिर ऐसा करा क्यों नहीं ?”
“हमे क्या पागल कुत्ता काटा था |जो जाति से बाहर नाती ब्याहते और कौन जाने पंडित है कि डोम ,शहर में रहने वाला तो हर कोई अब ‘सिंह ‘ और ‘शर्मा ‘ही होता है |पैसा-कौड़ी भी उस पर था नहीं|हमे तो ठग लग रही थी |क्या जाने कोर्ट मैरिज करती और फिर हम पर ही देहज का मुकद्दमा ठोक कर खेत-घर सब बिकबा लेती |”
“फिर आप ने उससे पिंड कैसे छुटाया ?”
हमने साफ़ कह दिया कि बिटिया मेहमान तभी अच्छा लगता है जब वो समय से लौट जाए |हमारी बहुत थू-थू हो रही है |अपना हिसाब-किताब करो और बमई में अपनी नौकरी करो और अपने साहबजादी के लिए लड़का खोजो |और तीन दिन में वो अपना हिसाब-किताब करके चलती बनी |
“जाते वक्त उसने कुछ नहीं कहा ?”
बोली कि इस घर से हमें बहुत प्यार मिला |हम फिर इस घर आना चाहेंगे |पर हमने कह दिया बेटी जिस हडिया कि दाल एक बार उमेठ जाए उसे कितनी भी कोशिश कर लो वो दुबारा नहीं पकती और आज डेढ़ साल हो गया जब से उन्होंने ना कोई फ़ोन किया ना लौटे हैं और हम बड़े आराम से मटर की उसिनी दाल खा रहे हैं |हमे नहीं पचती रहर दाल |
23 मई,आजमगढ़
सोमेश कुमार(मौलिक एवं अमुद्रित )
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