" मंजू के यहाँ आज बडी़ वाली एल ई डी भी आ गई । पिछले ही महिने उसने गाड़ी भी ली थी । और एक आप है ...!!!"
" मै क्या ....? क्या कहना चाहती हो तुम ?"
वहीं पास के विडियो गेम में लगे बेटे ने भी कंधे को उचका कर पिता की ओर देख फिर अपने गेम में व्यस्त हो गया ।
" मै क्या कहूँगी भला आपसे .! आपकी ही आॅफिस का बाबू है वो ..और आप अधिकारी होकर भी किसी काम के नहीं ..! "
" किसी काम का नहीं मै ....? "- मन में रह - रह कर एक ही बात अब घुम रही थी कि वे क्या किसी काम के नहीं है सच में ..? कल आॅफिस की लाॅबी में भी ठेकेदार के मुंह से परोक्ष में सुना था कि ये किसी काम के नहीं !
अगले ही दिन आॅफिस में ठेकेदार की अपूर्ण फाईल को पूर्ण करने के प्रयास में वे जी जान से लग गये थे ।
कान्ता राॅय
भोपाल
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
इमानदारी किसी भी स्तर पर मिलनी कठिन हो गई है ... काम में, व्यवहार में ... जिससे भी किसी का निज लाभ होता है, मानो नियम बदल जाते है। आपकी सशक्त लघु कथा ने कई अनुभव याद दिला दिए।
हार्दिक बधाई, आदरणीया कान्ता जी।
रचनाएँ, विशेषकर लघुकथाएँ, विद्रूप परिस्थितियों का आईना हुआ करती हैं. रचना के असहज निर्णय पर पाठक छटपटाता है और यही इस विधा की रचनाओं की सफलता हुआ करती है. विमर्श केलिए जगह बनाना भी लघुकथाओं एक उद्येश्य हुआ करता है.
आपकी रचना जिस ढंग से पाठकमन को कुरेदती है यही उससे अपेक्षित भी है. आदर्श का वर्णन अच्छा है परन्तु यथार्थ का शब्दांकन रचनाकर्म की सच्चाई है. एक सफल रचनाकार ऐसे ही समाज को आईना दिखाता है.
आपकी प्रस्तुति के लिए हार्दिक धन्यवाद एवं शुभकामनाएँ
आदरणीया कांता जी सफल लघुकथा हेतु हार्दिक बधाई
इसी जमीन पर मैंने अशआर कहे है आपकी लघुकथा के हवाले से दोहरा रहा हूँ -
मीलों पीछे सच्चाई को छोड़ गया हूँ
हत्थे चढ़ जाने के भय से रोज दबा हूँ
आज जरुरत पूरी करते - करते घर की
टेबल के नीचे वाली फिर मौत मरा हूँ
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