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सम्प्रदायिक दंगा...

चौराहों पर भीड़ अकड़ कर
भड़ास निकालती
दूकानें घबराकर छिप जाते बन्द डिब्बों में
जनानी खिड़कियां दुबक जातीं
देर सुबह तक.....शायद अनि-िश्चत काल के लिए
बिना पंख की हवाएं बिखेरतीं, सौरभ-अफवाहें
अर्ध्द खुली मर्द खिड़कियां, अवाक!
शहर की गली, सड़क सब सॉय-सॉय
...फुफकारते काले नाग
शोक में,  सब्जियां - फल सब दॉए-बॉए
नालियों में अपनी सूरतें देखतीं
सड़कों के मध्य चप्पलें दहाड़े मार कर रोती
जूते फटेहाल गुमसुम......मुॅह बॉए...स्तब्ध !
अचानक ही सीटी बजती !
पुलिस-पुलिस....स्वर गॅूजते
भद-भदा कर दौड़ पड़तीं फटी बिवाईयां   
घर-किवाड़ाें की टीसतीं आहें
मन्दिर-मस्जिदों की मीनारों से गूंजते- डर, खौंफ और आशंका
सीटी पल-पल में कौंध कर चुप हो जाती....
पर, धू-धू कर जलते रहते, घास-पूस के छप्पर

और आवारा टायर,
दिन ढलने के साथ ही बुझ जाते
रोजी, रश्मि, रोशन और रजिया के दिल
अॅधेरों में ढ़ूढ़तीं अपने बच्चों के हाथ
दहशत में कुछ नहीं सूझता
अस्पतालों की राह अतिदुर्गम, सवारियां छूमंतर हो गयीं
स्कूल - रेल सब सूने - सूने
समाचार पत्रों के मुॅह काले, आँखें लाल, कर्मों के कर लुंज-पुंज
दर्पण में साफ झलकता......जीवन का यथार्थ......भीभत्स !
सॉकल, बेलन, तालें विवशता मे बिखर गए
अस्मतें लुटी, बुझे कुल दीपक
अस्त-व्यस्त चिथड़ाें में लिपटी.... पर्यावरण
अलबेली बस्तियॉ, तड़फ उठीं
श्वॉसें, भेड़ाें सी.....बिटिया, पानी...
शुष्क कूप में रिश्ते सिसकें
तीव्र प्रगति के छिछले नाले,

उफना कर सब सिन्धु हो गए
लहरें हिन्सा - प्रतिहिंसा की
मानवता, पाषाण खण्ड...उन्मादी रेती... किरकिर 

लीपा-पोती न्याय व्यवस्था
रखती सुर्खी, लाली, बि-िन्दया ....काजल भी
सम्प्रदायिक हिंसा नित होती
राजनीति से मालामाल
जन गण मन की दलित बस्तियॉ .
बुझी राख में नित्य ढॅूढ़तीं
आस्था के फूल......

गंगा में विसर्जन हेतु.।

के0पी0सत्यम/ मौलिक व अप्रकाशित

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 6, 2015 at 2:08am

कविता की भावदशा कमाल की हुई है, भाई केवल प्रसादजी. लेकिन भाषा इतना अनगढ़ क्यों रहने दिया आपने भाई ?
व्याकरणजन्य अशुद्धियाँ बहुत खलती हैं. आपको इस रचना को पोस्ट करने के पूर्व एक बेरी देख लेना था.
इस अत्यंत गहन भावदशा केलिए बधाई..

ये सौरभ-अफ़वाहें क्या हैं भाई ?
शुभ-शुभ


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 24, 2015 at 8:27pm

आदरणीय केवल भाई , बात बहुत गँभीर नही है , फिर भी बात चली तो कहना ज़रूरी है , रोशन उर्दू शब्द है इसी से रोशनी शब्द बना है , नाम भले ही हिन्दू या सिक्ख रख लें , रोशन लाल हिदू भी नाम रख लेते हैं । बस इसी लिये मै लिखा था । लैन आपकी बात से मै सहमत हूँ , सिक्ख मे भी रोशन नाम होते हैं । मेरी बात को  गम्भीरता से  लेने के ल्लिये आपका आभार ।

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on June 24, 2015 at 7:33pm

आपका हार्दिक आभार, जान भाई जी...  सादर

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on June 24, 2015 at 7:33pm

आपका हार्दिक आभार, भंडारी भाई जी....रोज़ी {ईसाई} रश्मि{हिंदू}..रोशन{सिक्ख} ..रज़िया {मुस्लिम} से तात्पर्य है.  सादर


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 21, 2015 at 12:54pm

आदरणीय केवल भाई , दंगों का सच आपकी रचना के माध्यम से बोलता लगा ! बहुत सुन्दर ! हार्दिक बधाइयाँ

बस इन नामों मे भी संतुलन रहता हैसा लगता है मुझे  ----

रोजी, रश्मि, रोशन और रजिया के दिल  --  रोजी, रश्मि, सरिता  और रजिया के दिल ॥

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on June 21, 2015 at 12:33pm

लाजवाब!दंगों के दंश को बेहतरीन शब्द मिले है आ. भाई केवल जी!हार्दिक बधाई!

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on June 19, 2015 at 6:26pm

आ0 महिर्शि भाई जी  प्रणाम! आपका बहुत-बहुत  आभार, सादर

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on June 19, 2015 at 6:25pm

आ0 गोपाल भाई जी  प्रणाम! आपका बहुत-बहुत शुक्रिया व आभार, सादर

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on June 19, 2015 at 6:25pm

आ0 वीजॅय भाई जी  प्रणाम! आपका बहुत-बहुत शुक्रिया व आभार, सादर

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on June 19, 2015 at 6:22pm

आ0 समर भाई जी  प्रणाम! आपका बहुत-बहुत आभार, सादर

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