मत्तगयन्द सवैया // सात भगण + दो गुरू
बालक बुद्धि यही समझे, अखबार सुधार किया करते हैं।
जूठन खीर न दूध गिरे, इस हेतु बिछा भुइ को ढकते है।।
आखर-आखर कालिख ही, मन सोच-विचार भली कहते हैं।
मानव नित्य प्रलाप करे, अखबार प्रशासन ही छलते हैं।।
के0पी0सत्यम/ मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आ0 भंडारी भाई जी, छंद पर आपकी उपस्थिति के लिये आपका हार्दिक आभार. सादर
आदरणीय केवल भाई , इस छंद को सस्वर पाठ कर बहुत आनंद आया । बाक़ी बातें तो मै नहीं जानता , आदरणीय सौरभ भाई जी के कहे का ध्यान दीजियेगा ॥ आपको हार्दिक बधाइयाँ ॥
आ0 सौरभ सर जी, आपकी बात सोलहोंआने सही है. किसी भी छंद रचना के उपरांत उसका पुनरावलोकन करना अतिआवश्यक होता है, जिस्की चूक हुइ हैं. आपका आभार. सादर
मत्तगयंद सवैया की प्रस्तुति के लिए हार्दिक धन्यवाद, भाई केवल प्रसादजी. शिल्प के स्तर पर सारे पद (पंक्तियाँ) सधे हुए हैं. किन्तु, भाई इन पदों में संप्रेषणीयता का वह स्तर नहीं है कि जो एक छान्दसिक रचना से अपेक्षित होता है.
सात भगण+दो गुरु के वर्ण पर संयोजित हुए शब्द यदि तार्किक ढंग से भाव अभिव्यक्त न करें तो छन्द का उद्येश्य प्रभावित होता है. आपने बहुत कुछ कहने का प्रयास किया है लेकिन उस कहे को रुक कर यह देखना आवश्यक था न, कि क्या प्रस्तुति आपके विन्दुओं को व्यवस्थित ढंग से रख पा रही है.
छन्द के प्रति लोगों (पाठकों) का एक तो वैसे ही दुराव बनता जा रहा है. यदि ऐसे एक या दो छन्द बिना पूरी आश्वस्ति के प्रस्तुत होने लगे, तो दवाब छान्दसिक रचनाओं पर ही बनेगा. आप एक अच्छे छन्द-रचनाकार हैं. आपकी प्रस्तुतियों से अपेक्षाएँ यदि हैं तो यह आपके रचनाकर्म के प्रति सम्मान के भाव ही हैं.
विश्वास है आप मेरी बातें समझ रहे हैं.
शुभेच्छाएँ.
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