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विरह-हंसिनी हवा के झोंके

श्वेत पंख लहराए रे !

आज हंसिनी निठुर, सयानी

निधड़क उड़ती जाए रे !

 

अब तो हंसिनी, नाम बिकेगा

नाम जो सँग बल खाए रे !

होके बावरी चली अकेली

लाज-शरम ना आए रे !

 

धौराहर चढ़ राज-हंसनी,

किससे नेह लगाए रे !

कोटर आग जले धू-धूकर  

क्यों न उसे बुझाए रे !

 

ओरे ! हंसिनी, रंगमहल से

कहाँ तू नयन उठाए रे !

जिस हंसा के फाँस-फँसी

कोई उसका सच ना पाए रे !

 

सच तो एक ही, सुन रे, बतंगड़ !

तू ही भरम फैलाए रे !

क्षिति, जल, अनल, गगन, पवन

वही एक करत बिखराए रे !

 

(मौलिक व अप्रकाशित)

-- संतलाल करुण 

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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 12, 2015 at 10:16pm

आ. सन्तलाल करुणजी, मेर कहे को मान देने केलिए सादर धन्यवाद

Comment by Santlal Karun on July 12, 2015 at 7:10pm

आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी,

जैसा कि आप ने सुझाया, मैंने रचना को पद-बंध रूप में व्यवस्थित कर दिया है | सुझाव और रचना के प्रति श्लाघात्मक प्रतिक्रिया  के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद ! 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 7, 2015 at 11:36pm

गीत सुन्दर है आदरणीय. निर्गुण की भावाभिव्यक्ति सरस धार में बही है. 

लेकिन इस रचना को शब्द की पंक्तियाँ क्यों दे दिये ? इसे देखिये -

विरह-हंसिनी  हवा के झोंके
श्वेत पंख लहराए रे !

आज हंसिनी निठुर, सयानी
निधड़क उड़ती जाए रे !

अब तो हंसिनी, नाम बिकेगा
नाम जो सँग बल खाए रे !

अब तो हंसिनी नाम बिकेगा
नाम जो सँग बल खाए रे !

होके बावरी चली अकेली
लाज-शरम ना आए रे !

धौराहर चढ़ राज-हंसनी,
किससे नेह लगाए रे !

कोटर आग जले धू-धूकर  
क्यों न उसे बुझाए रे !

ओरे ! हंसिनी, रंगमहल से
कहाँ तू नयन उठाए रे !

जिस हंसा के फाँस-फँसी
कोई  उसका सच ना पाए रे !

सच तो एक ही, सुन रे, बतंगड़ !
तू ही भरम फैलाए रे !

क्षिति, जल, अनल, गगन, पवन
वही एक करत बिखराए रे !

Comment by Santlal Karun on June 25, 2015 at 6:12pm

आदरणीय आदित्य कुमार जी,

श्लाघात्मक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार !

Comment by Santlal Karun on June 25, 2015 at 6:10pm

आदरणीय हरी प्रकाश जी,

रचना की सराहना के लिए हार्दिक आभार !

Comment by Santlal Karun on June 25, 2015 at 6:08pm

आदरणीय कांता मैडम,

रचना की प्रशंसा के लिए सहृदय आभार !

Comment by Santlal Karun on June 25, 2015 at 6:07pm

आदरणीय  डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी.

प्रशंसात्मक उद्गार के प्रति हार्दिक आभार !

Comment by Aditya Kumar on June 24, 2015 at 6:55pm

सुन्दर रचना के लिए बधाई स्वीकार करें आदरणीय श्री Santlal Karun जी 

Comment by Hari Prakash Dubey on June 24, 2015 at 5:53pm

आदरणीय संतलाल करुण जी 

सच तो एक ही,

सुन रे, बतंगड़ !

तू ही भरम

फैलाए रे !

क्षिति, जल, अनल,

गगन, पवन

वही एक करत

बिखराए रे !...............सुन्दर रचना , बधाई  प्रेषित ! सादर  

Comment by kanta roy on June 24, 2015 at 5:24pm
ओरे ! हंसिनी,
रंगमहल से
कहाँ तू  
नयन उठाए रे !
जिस हंसा के
फाँस-फँसी
कोई  उसका सच
ना पाए रे ............. बहुत सुंदर मनोरम विरह की आग हँसनी किससे नेह लगाए रे .... बधाई इस सुंदर रचना आदरणीय संतलाल जी

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