212 212 212 212
आ के छू तो कभी बामो दर ज़िन्दगी
मुझमें पैठा हुआ कोई डर ज़िन्दगी
क्यों तू नाराज़ है इस क़दर ज़िंदगी
क्या मैं इतना लगा पुरखतर , ज़िन्दगी ?
आँधियाँ ग़म की आयें , चलो ठीक है
तेज़ लेकिन न हों इस क़दर ज़िन्दगी
तू कभी मावसी रात में , चाँदनी
गर बने तो इधर भी बिखर ज़िन्दगी
ले जिया माहो ख़ुर्शीद से दो घड़ी
कुछ समय के लिये तो निखर ज़िन्दगी
वक़्त ने काटे थे जो मेरे बालो पर
तू ही लौटा दे वो बालो पर ज़िन्दगी
एक दिन की हँसी को सँजो ले कहीं
फिर तो रोयेगी तू साल भर ज़िन्दगी
किस क़दर थी खुशी उन फज़ाओं में कल
फिर उसी राह से तू गुज़र ज़िन्दगी
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरणीय बड़े भाई , आपको खुश देख के मुझे भी संतुष्टि मिली ॥ गज़ल की मुक्त सराहना के लिये आपका आभारी हूँ ।
आ० अनुज
कमाल कर दिया . इस गजल को मैने तरन्नुम में गाया , क्या बेहतरीन लिखा है आपने . वाह -----
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