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फ़लक पे जो मुझे अक्सर दिखाई देता है
वो आम लोगों में तनकर दिखाई देता है
अभी हैं बदलियाँ चारों तरफ से घेरी हुईं
तभी तो चाँद भी बदतर दिखाई देता है
जो तोप ले के चले साथ अपनें , वो हमको
कहें हैं हाथ में ख़ंजर दिखाई देता है
निजाम के कहीं साजिश का मारा वो भी न हो
जो रात दिन अभी घर पर दिखाई देता है
पलट न दें कहीं आकाश ये सताये हुये
हरेक हाथ में पत्थर दिखाई देता है
वो छाँव बरगदी में खूब खेलते बच्चे
कहाँ , कहीं पे ये मंज़र दिखाई देता है
बहुत क़रीब से देखो न मेरे दागों को
रहेगा इंच वो गज भर दिखाई देता है
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
हा हा हा ....... अभी सुधारता हूँ आदरणीय सौरभ भाई , ऊपर बहर लिखने गलती हो गई है । ध्यान दिलाने का शुक्रिया । गज़ल पर फिर आइयेगा ॥
आदरणीय मिथिलेश भाई , हौसला अफज़ाई का बेहद शुक्रिया ।
आदरणीय गिरिराज भाईजी, मैं तो मिसरों के वज़न में ही फंस गया.
ये क्या हाल बना रखा है ? कुछ ’करते’ क्यों नहीं ? .. :-))))
आदरणीय गिरिराज सर बेहतरीन फिल बदीह ग़ज़ल हुई है शेर दर शेर दाद कुबूल फरमाएं
बहुत क़रीब से देखो न मेरे दागों को
रहेगा इंच वो गज भर दिखाई देता है........ कमाल बेमिसाल
आदरणीय हरि प्रकाश भाई , गज़ल की सराहना के लिये आपका आभार ।
आदरणीय गिरिराज भंडारी सर शानदार ग़ज़ल है , हार्दिक बधाई ! सादर
निजाम के कहीं साजिश का मारा वो भी न हो
जो रात दिन अभी घर पर दिखाई देता है.......बहुत खूब
पलट न दें कहीं आकाश ये सताये हुये
हरेक हाथ में पत्थर दिखाई देता है....शानदार
आदरणीय बड़े भाई गोपाल जी , सराहना के लिये आपका दिली शुक्रिया ।
आदरणीय मुकेश भाई , उत्साह वर्धन के लिये आपका हृदय से आभारी हूँ ॥
आदरणीय श्री सुनील भाई , सराहना के लिये आपका आभारी हूँ ।
आदरणीय , आपकी सलाह सही लग रही है , कुछ परिवर्तन करूङा ज़रूर । आपका आभार ।
आदरणीय विजय भाई , हौसला अफज़ाई का बहुत शुक्रिया ।
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