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आ के छू तो कभी बामो दर ज़िन्दगी
मुझमें पैठा हुआ कोई डर ज़िन्दगी
क्यों तू नाराज़ है इस क़दर ज़िंदगी
क्या मैं इतना लगा पुरखतर , ज़िन्दगी ?
आँधियाँ ग़म की आयें , चलो ठीक है
तेज़ लेकिन न हों इस क़दर ज़िन्दगी
तू कभी मावसी रात में , चाँदनी
गर बने तो इधर भी बिखर ज़िन्दगी
ले जिया माहो ख़ुर्शीद से दो घड़ी
कुछ समय के लिये तो निखर ज़िन्दगी
वक़्त ने काटे थे जो मेरे बालो पर
तू ही लौटा दे वो बालो पर ज़िन्दगी
एक दिन की हँसी को सँजो ले कहीं
फिर तो रोयेगी तू साल भर ज़िन्दगी
किस क़दर थी खुशी उन फज़ाओं में कल
फिर उसी राह से तू गुज़र ज़िन्दगी
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरणीय सौरभ भाई , आपको तो मालूम है , इस गज़ल ( दाल ) में कोई भी छौंक नहीं है , सादी दाल है , जैसी की वैसी । ये गज़ल लिख गई है , कहीं कोई प्रयास नहीं है । इसीलिये शायद कुछ फीकी रह गई । देखूँगा कुछ सोच के । वैसे मन नहीं है ।उचित सलाह के लिये आपका आभारी हूँ ।
// वैसे ये आजकल फ़िलबदीह करके खूब सुन रहा हूँ .. ये माज़रा क्या है, सर ? // आदरणीय पिछली गज़ल मे विस्तार से जवाब लिख दिया हूँ , आभार ॥
// माज़रा क्या है, सर ? // आपसे सर सुनना अच्छा लगा , वैसे बाक़ी सब को मना करता हूँ , लेकिन इस भाव मे तो सर भी स्वीकार है
बहुत शुक्रिया ॥
आदरणीय सौरभ भाई , आपको तो मालूम है , इस गज़ल ( दाल ) में कोई भी छौंक नहीं है , सादी दाल है , जैसी की वैसी । ये गज़ल लिख गई है , कहीं कोई प्रयास नहीं है । इसीलिये शायद कुछ फीकी रह गई । देखूँगा कुछ सोच के । वैसे मन नहीं है ।उचित सलाह के लिये आपका आभारी हूँ ।
रुक रुक के बढ़ती हुई ग़ज़ल लगी ये आदरणीय गिरिराज भाई.
थोड़ी और छौंक मारनी थी.. ज़िन्दग़ी के मसाला वाली.
वैसे ये आजकल फ़िलबदीह करके खूब सुन रहा हूँ .. ये माज़रा क्या है, सर ?
आदरणीय गिरिराज सर, बेहतरीन फिल बदीह ग़ज़ल हुई है शेर दर शेर दाद कुबूल फरमाएं
आदरणीय हरि प्रकाश भाई , उत्साह वर्धन के लिये आपका आभार ।
आदरणीय वीनस भाई , आपका आभार ।
आ के छू तो कभी बामो दर ज़िन्दगी
मुझमें पैठा हुआ कोई डर ज़िन्दगी......वाह शानदार ग़ज़ल है आदरणीय गिरिराज सर , बधाई ! सादर
एक विशेष मनः स्थिति में कही गयी ग़ज़ल, अपने साथ ज़िंदगी के तमाम पहलुओं को ले कर बढ़ रही है
आदरणीय धर्मेन्द्र भाई , आप से मिली दाद हिम्मत बढ़ा देती है , आपका दिली शुक्रिया ।
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