सिरा है मेरा काला ,
तन है मेरा सफ़ेद |
मोल नहीं कुछ मेरा ,
करूँ अगर रंगों में मेरे भेद |
कोई ना जाने मोल मेरा,
गर रहूँ मैं डिब्बे में बंद |
बाहर निकल कर रगड़ जो खाऊं ,
तब बनु मैं ज्योत अखंड |
रहती हूँ अपनी सहेलियों के सांथ,
काम आती रहेंगी जो आपके ,
मेरे जाने के भी बाद |
लौ के रूप में उत्साह के सांथ हम बाँट लेती हैं एक दूजे का दर्द /``\ /``\
त्योहारों में दिया जलाकर खुशियां भी लाती हूँ |
बीड़ी-सिगरेट को जला कर धूम्रपान भी फैलाती हूँ |
दर्पण की तरह मैं अपने उपभोग याँ उपयोग की
जीवंत छाया बन जाती हूँ |
सिगड़ी- चूल्हे की ज्योत जलाती हूँ ,
आपके भोजन को शुद्ध बनाती हूँ |
बोलकर नहीं , मगर अपने छोटे से कार्य से ही ,
आपके जीवन में एक अमूल्य स्थान पाती हूँ |
अनेकता में एकता का मूल्य समझाते हुए,
रंग भेद ना कर एक नन्हा सा जीवन निःस्वार्थ होकर जी लेती हूँ |
सदा अपने लक्ष्य पर समर्पित रहने का पाठ पढ़ा जाती हूँ |
.....................मौलिक एवं अप्रकाशित रोहित दुबे |
Comment
इसे कविता बनाना चाहता था पर बड़ा मुश्किल था विचारों को छंद में बदलना , जितना संभव हो सका करने का प्रयास किया |
आप सभी को बहुत बहुत धन्यवाद |
बहुत अलग विषय पर आपने लिखा है इसके लिए बहुत- बहुत बधाई कोशिश करते रहिये और बेहतर लिख सकते हो शुभकामनायें
मंच पर आपका स्वागत है, रोहित भाई.
अब आप यहाँ पोस्ट हुई कविताएँ, ग़ज़लें, लघुकथाएँ, कहानियाँ.. सब-सब-सब पढ़ें. फिर इन सभी में जो अन्तर है उसे समझें और महसूस करें ..
शुभेच्छाएँ
भाई जी ,,आपकी सोच काबिले तारीफ है ,,,और हैं ये लघुकथा नही है ,,,जहाँ तक मुझे मालूम है ,,बाकि डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव सर से सहमत हूँ |
jee
माचिस की सारी उपयोगिता गिना डाली बंधू , इसमें कविता कहाँ है . अभी और प्रयास की जरूरत है .
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