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तू वहाँ मशरूफ़ मैं यहाँ तन्हा

2 1 2 2 2 1 2 1 2 2 2
तू वहाँ मशरूफ़ मैं यहाँ तन्हा
ये ज़मी तनहा वो' आसमाँ तन्हा

अब तेरी यादें यहाँ मचलती हैं
रह गया टूटा हुआ मकाँ तन्हा

हमने हर मौसम के' रंग देखें हैं
हम कभी तन्हा कभी समाँ तन्हा

चल दिए अरमां जला के' तिनकें सा
देर तक उठता रहा धुआँ तन्हा

हैं पड़ी ज़ंज़ीर दिल के पैरों में
हम अगर जाएँ तो अब कहाँ तन्हा

सोच कर ये रूह काँप जाती है
दिल में बस्ती बसे मकाँ तन्हा

जब न बंधन हो न ही रस्म कोई
हम मिलेंगे आपको वहाँ तन्हा


© परी ऍम. 'श्लोक'
"मौलिक व अप्रकाशित"

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Comment

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Comment by Pari M Shlok on July 6, 2015 at 1:35pm
krishna mishra 'jaan'gorakhpuri जी आपने हमें इस काबिल समझा इस सम्मान के लिए आपकी शुक्रगुज़ार हूँ ...... !!
Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on July 4, 2015 at 9:38pm

जी हाँ आ० अब ठीक है!

//यहाँ सीखना ही उद्देश्य है//

आपकी बात का स्वागत है!साथ ही आभार आपने मर्म समझा.!

आदरणीय! आपको  ब्लॉग पर मै बहुत समय से पढ़ता आ रहा हूँ,मेरा  तो अभी ब्लॉगिंग,obo आदि की दुनिया से अभी परिचय ही हुआ है..आप हर प्रकार से मुझसे वरिष्ठ हैं....आपके प्रति मेरे मन में बहुत आदर है!

Comment by Pari M Shlok on July 4, 2015 at 2:31pm
जब न बंधन हो न रस्म हो कोई
२१२ २२१२ १२२२
हम मिलेंगे आपको वहाँ तन्हा
२१२ २२१२ १२२२

सोच कर ये रूह काँप जाती है
२१२ २२१२ १२२२

दिल में बस्ती और ये मकाँ तन्हा
२१२ २२ १२ १२२२

krishna mishra 'jaan'gorakhpuri
जी बेशक़ गलती थी और हमने ठीक करने की कोशिश की है टिप्पणी में डाल रहे हैं देखें और आपसे अनुरोध है अपनी प्रतिक्रिया भी आवश्य दें धन्यवाद हमारी गलती पर गौर कर हमें मार्गदर्शन करने हेतु दिल से आभार प्रेषित है!
Comment by Pari M Shlok on July 4, 2015 at 12:49pm
जी बेशक आपका स्वागत है यहाँ सीखना ही उद्देश्य है मेरा आप की टिप्पणी को सकारात्मक लिया है हमने और आपका आभार भी व्यक्त करती हूँ आप समय देकर पढ़ते हैं krishna mishra 'jaan'gorakhpuri ji आप मेरी बात को गलत भाव में मत लें आपसे अनुरोध है व नियमित टिप्पणी की अपेक्षा है आपसे
Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on July 4, 2015 at 12:28pm

आ० समयाभाव के कारण हो सकता है वरिष्ठजनों ने हर पक्ष पर गौर न किया हो!.मंच पर सभी एक दुसरे से सीखते है...कमी निकालने वाली कोई बात नही है,न ही  मेरा स्वभाव ऐसा है..बात है एक-दूसरे की गलतियाँ को ध्यान दिलाने की ताकि और सुधार हो सके, एक दूसरे से हम सीख सके!

सादर!

Comment by Pari M Shlok on July 4, 2015 at 12:05pm
krishna mishra 'jaan'gorakhpuri ji दिल से शुक्रिया आपका तारीफ के लिए कमी देखते हैं जहाँ रह गयी है मगर मिथिलेश वामनकर जी पढ़ा है और कोई गलती नहीं निकाली और गिरिराज भंडारी जी ने भी किन्तु आपकी जानकारी के अनुसार देखते हैं !
Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on July 4, 2015 at 11:55am

तू वहाँ मशरूफ़ मैं यहाँ तन्हा
ये ज़मी तनहा वो' आसमाँ तन्हा          वाह!  बहुत सुन्दर मतला!          

अब तेरी यादें यहाँ मचलती हैं
रह गया टूटा हुआ मकाँ तन्हा    कहने कहने! खुबसूरत

हमने हर मौसम के' रंग देखें हैं
हम कभी तन्हा कभी समाँ तन्हा          सुन्दर!


चल दिए अरमां जला के' तिनकें सा
देर तक उठता रहा धुआँ तन्हा                    बेहतरीन!


हैं पड़ी ज़ंज़ीर दिल के पैरों में
हम अगर जाएँ तो अब कहाँ तन्हा        वाह! वाह!


सोच कर ये रूह काँप जाती है
दिल में बस्ती बसे मकाँ तन्हा..............ये मिसरा बेबहर  हो रहा है, देख लीजिये!


जब न बंधन हो न ही रस्म कोई...........रस्म (रस्+ म) का वज्न २१ होना चाहिए शायद!
हम मिलेंगे आपको वहाँ तन्हा

आदरणीया परि एम श्लोक जी ,बहुत ही सुन्दर गज़ल हुयी है,तहेदिल से दाद प्रेषित है!

Comment by Pari M Shlok on July 4, 2015 at 10:02am
आप सभी गुनीजनो के आशीर्वाद और स्नेह से एक ग़ज़ल और हमारी मुक़म्मल हुई। ख़ुशी लाज़मी है !
Comment by Pari M Shlok on July 4, 2015 at 9:58am
श्री सुनील जी दिल से आभार व्यक्त करती हूँ
Comment by Pari M Shlok on July 4, 2015 at 9:56am
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी आपका बहुत-बहुत शुक्रिया स्व. मीनाकुमारी जी का नाम लेकर आपने उनकी यह ग़ज़ल पढ़ने की उत्सुकता मुझमें बढ़ा दी है। आपको ग़ज़ल पसंद आई जानकार बहुत ख़ुशी हुई और उत्साह भी चार गुना बढ़ गया :) :)

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