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जी हाँ आ० अब ठीक है!
//यहाँ सीखना ही उद्देश्य है//
आपकी बात का स्वागत है!साथ ही आभार आपने मर्म समझा.!
आदरणीय! आपको ब्लॉग पर मै बहुत समय से पढ़ता आ रहा हूँ,मेरा तो अभी ब्लॉगिंग,obo आदि की दुनिया से अभी परिचय ही हुआ है..आप हर प्रकार से मुझसे वरिष्ठ हैं....आपके प्रति मेरे मन में बहुत आदर है!
आ० समयाभाव के कारण हो सकता है वरिष्ठजनों ने हर पक्ष पर गौर न किया हो!.मंच पर सभी एक दुसरे से सीखते है...कमी निकालने वाली कोई बात नही है,न ही मेरा स्वभाव ऐसा है..बात है एक-दूसरे की गलतियाँ को ध्यान दिलाने की ताकि और सुधार हो सके, एक दूसरे से हम सीख सके!
सादर!
तू वहाँ मशरूफ़ मैं यहाँ तन्हा
ये ज़मी तनहा वो' आसमाँ तन्हा वाह! बहुत सुन्दर मतला!
अब तेरी यादें यहाँ मचलती हैं
रह गया टूटा हुआ मकाँ तन्हा कहने कहने! खुबसूरत
हमने हर मौसम के' रंग देखें हैं
हम कभी तन्हा कभी समाँ तन्हा सुन्दर!
चल दिए अरमां जला के' तिनकें सा
देर तक उठता रहा धुआँ तन्हा बेहतरीन!
हैं पड़ी ज़ंज़ीर दिल के पैरों में
हम अगर जाएँ तो अब कहाँ तन्हा वाह! वाह!
सोच कर ये रूह काँप जाती है
दिल में बस्ती बसे मकाँ तन्हा..............ये मिसरा बेबहर हो रहा है, देख लीजिये!
जब न बंधन हो न ही रस्म कोई...........रस्म (रस्+ म) का वज्न २१ होना चाहिए शायद!
हम मिलेंगे आपको वहाँ तन्हा
आदरणीया परि एम श्लोक जी ,बहुत ही सुन्दर गज़ल हुयी है,तहेदिल से दाद प्रेषित है!
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