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नीरवताएँ

दुखपूर्ण भावों से भीतर छिन्न-भिन्न

साँस-साँस में लिए कोई दर्दीली उलझन

मेरे प्राण-रत्न, प्रेरणा के स्रोत

तुम कुछ कहो न कहो पर जानती हूँ मैं

किसी रहस्यमय हादसे से दिल में तुम्हारे

है अखंडित वेदना भीषण

चोट गहरी है

दुख का पहाड़ है

दुख में तुम्हारे .. तुम्हारे लिए

दुख मुझको भी है

रंज है मुझको कि संवेदन-प्रेरित भी

मैं कुछ कर नहीं पाती

खुले रिसते घाव को तुम्हारे 

सी नहीं पाती ...

यह मेरी बदनसीबी है

अग्निमय प्रश्नों की चिनगियों से अनवस्थ

वेदनामयी मुस्कान लिए ओंठों के कोरों पर

जब तुमने कहा कल कि मन-ही-मन

मनहूस पीड़ा से कहीं दूर चले जाना चाहते हो

पर बहती पीड़ा की गति जो परसों थी

कल थी और आज भी

गतिशील अनवरत कहीं भी वह

ज्वाला की फूंक बनी तुम्हारे साथ जाएगी

तड़पाएगी

पीड़ा की धारा को केवल वही सोख सकता है

जिससे अमुक अनवलंबित पीड़ा मिली हो

नए सुख आएँगे

पर परतों के नीचे के इतिहास से

लोट-लोट आएँगी रात-बेरात अचानक पुरानी

नीरव आवाज़ें

उफ़नती पुरानी अपरिमित पीड़ा की

चिलचिलाती-चिलकती झकझोरती यादों की

अकुलाएगा बेकाबू मन रातों अंधेरे की थाहों में

-----

 -- विजय निकोर

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by सुनील प्रसाद(शाहाबादी) on July 6, 2015 at 10:05pm
बहुत असीम परतो में दबी अकुलाहट को शब्द दे नीरव शांत जल के निचे की भंवर को उभार दिया है आपने आदरणीय बेहद खूबसूरती के साथ मुग्ध हूँ पंक्तियों पर।
Comment by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on July 6, 2015 at 6:51pm

आदरणीय विजय निकोर जी सुख और दुःख की परतों में जीवन की व्यथा की मार्मिक रचना के लिये बधाई ...सादर 

Comment by shree suneel on July 5, 2015 at 8:18pm
आदरणीय विजय निकोर सर, आपकी रचना हृदय-तल को छू जाती है. इस प्रस्तुति के लिए बधाई.. बधाई..बधाई आपको. .
Comment by kanta roy on July 5, 2015 at 6:12pm
कितना गहन नीरवता है मन के अंदर , कितना मन दग्ध ...कितना मन हतप्रभ ! .... पढते हुए दूर कहीं ले जाता है अवचेतन मन को ..... बहुत ही सुंदर संवेदनशील रचना आदरणीय विजय निकोरे जी .... बधाई सुंदरतम अभिव्यक्ति के लिए

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