अजनबी लाशें..
पाठशाला में पढाती
आँंखें खोल कर,
सृ-िष्ट की सबसे सुन्दर कृति
नारी का हृदयंगम पाठ
अक्षर-अक्षर निर्वस्त्र, लिजलिजा भाव
भाषा नि:शब्द!
पर, संवेदना के पहाड़े याद नहीं होते।
पानी, ........पानी-पानी
आँंखें सूख कर पथरा गयीं
गया, गया,... गया, .......हृदय भर आया
पर, गया!
फिर कभी नहीं आया।
शोध ! तो बस,
पन्नियों की विविधता पर
गिरते जल स्तर पर,
किन्तु, जीवन का अ-िस्थत्व
मूल्यांकन से कोसों दूर
एक मई को मजदूर दिवस
दो जून की रोटियॉं
शापित
सूरज और चॉंद निस्तारित हैं
...तालाब में
अतिथि गृहों के नीचे।
उदासीन तंत्र में बिखरती जिन्दगी
विकासवाद की।।
के0.पी.सत्यम/ मौलिक व अप्रकाशित
Comment
इंगितों को आपने तनिक बिखेर दिया है भाईजी.. इन्हें समेटते हुए पारपम्यता देना था. अन्यथा बिम्बों का कोलाज लगती है यह कविता.
वैए आपके विचारों में गठन है. इसके लिए हृदयतलसे बधाई.
शुभ-शुभ
आदरणीय केवल भाई, बढिया कविता रची है , सच है जिस ज़िन्दगी के लिये इतनी दौड़ भाग है वही ज़िन्दगी शोध से बाहर है । बधाई आपको ।
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