हमें भी न आया
तू ऐसा बीज थी
जिसे न मिली धूप
न हवा, न पानी
और न कोई खाद
फिर भी तू पनपी
पनपी ही नही
बन गयी एक पेड़
बरगद सी छाया
फिर तूने बसाया
अपना संसार
और कहलाई माँ
फिर बांटी तेजस धूप
पवन में भरी गंध
दूध से सींचे पौधे
हृदय को मथकर
लाई खाद
हुए तेरे
लख-लख पूत आबाद
एक बार फिर
व्यर्थ हुयी माँ
वह तेरी तपस्या
वह तेरा त्याग
क्योंकि
पुरुष होने के अहम् में
‘बीज’ की कद्र करना
फिर भी हमें न आया I
(मौलिक व् अप्रकाशित)_
Comment
aadarneey Pari M Shlok jee
aapkaa aabhaar
आ० चौहान जी
आभारी हूँ. सादर .
आदरणीय निकोर जी
आपको प्रणाम सादर .
आ० कांता राय जी
आपका समर्थन स्वागत योग्य है .
आ० विनय जी
बहुत आभार .
आ० मिथिलेश जी
बहुत धन्यवाद .
आदरणीय सविता जी
सादर आभार.
अति सुन्दर रचना
आदरणीय गोपाल नारायन जी
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