कवि
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आत्मावलोकन
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सभागार
खचा खच था भरा
कुछ सहमा सा
कुछ डरा डरा
खड़ा मैं किनारे धरे मौन
उसने
पूछा परिचय
मैं हूँ कौन ?
सकपकाया थर्राया
फिर तोडा मौन
तुम कौन ?
कभी अपने को जाना
नही समझोगे
व्यर्थ समझाना
मैं कवि हूँ अदना सा
नही हूँ डॉन
हकीकत
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भीतर घुसा
ढाढ़स कुछ पाया
अंधियारे में कुछ
समझ न आवा
मानव जीवन
बड़ा अनमोल
बेचारा कवि
बिकता बे मोल
दिग्गज कवि
भये मंचासीन
मौसमी कवि
सदा धरानसीन
शास्त्र , बंद ,
छन्द के बड़े प्रणेता
सगरे चम्मच
बस एक ही नेता
काव्य पाठ शुरू हुआ
था चेला जों गुरु हुआ
छंद बंद की बात तजी
बिन दूल्हा बारात सजी
कविता पढ़ी अतुकांत
बने बैठे कविता कान्त
देख हुआ बड़ा अचम्भा
नोचें सर या नोचें खम्भा
परिणति
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कवि हृदय चोटिल हुआ
देख कुटिल व्यवहार
बाँध पोटरिया राग की
छोड़ चला दरबार
इच्छा
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द्वार द्वार दुत्कार मिले
पड़े न गले में हार
ईश्वर तुमसे प्रार्थना
कवि जीवन मिले बारम्बार
मौलिक / अप्रकाशित
प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा
Comment
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी
सादर अभिवादन
आपका स्नेह प्राप्त हुआ
सादर आभार
आदरणीय प्रदीप भाई , कवि मन को खूब टटोला है आपने ,कविता के लिये आपको बधाई
आदरणीया राजेश कुमारी जी
सादर अभिवादन
आपने हमेशा मेरा उत्साह बढ़ाया है , तहे दिल से शुक्रिया .
काव्य पाठ शुरू हुआ
था चेला जों गुरु हुआ
छंद बंद की बात तजी
बिन दूल्हा बारात सजी
कविता पढ़ी अतुकांत
बने बैठे कविता कान्त
देख हुआ बड़ा अचम्भा
नोचें सर या नोचें खम्भा-----बहुत खूब बहुत खूब्ब आदरणीय क्या सार्थक कटाक्ष किया है यही तो हो भी रहा है
एक कवि के व्यथित मन को क्या शब्दबद्ध किया है ...अतिसुन्दर प्रस्तुति ..दिल से बधाई लीजिये आ० प्रदीप कुमार सिंह जी
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