धूमिल होती भ्रांति सारी, गण-गणित मैं तोड़ रही हूँ
कलम डुबो कर नव दवात में, रूख समय का मोड़ रही हूँ
मैं दुर्गेश्वरी बोल रही हूँ ......
नई भोर की चादर फैली, जन-जीवन झकझोर रही हूँ
धधक रही संग्राम की ज्वाला, सागर सी हिल-होर रही हूँ
मैं दुर्गेश्वरी बोल रही हूँ ......
टूटे हृदय के कण-कण सारे, चुन-चुन सारे जोड़ रही हूँ
उद्वेलित मन अब सम्भारी, विषय-जगत अब छोड़ रही हूँ
मैं दुर्गेश्वरी बोल रही हूँ .....
मृदंग- मृदंग सा है मन मेरा, हरकाती सी शोर रही हूँ
क्षितिज रखी है मैने अंगुली, प्रत्यक्षित हिलकोर रहीं हूँ
मैं दुर्गेश्वरी बोल रही हूँ .........
रोक सको दम गर है तुममें, प्रलय-प्रकाश जोड़ रहीं हूँ
आत्म स्वरों को रौंदने वालें नर - नारायण तोड़ रहीं हूँ
मैं दुर्गेश्वरी बोल रही हूँ ........
शक्ति प्रकृति ढोना होगा, मन मृगछाल ओढ रही हूँ
पग-पग रक्तबीज राजे है, अस्त्र अक्षर बल जोर रही हूँ
मैं दुर्गेश्वरी बोल रही हूँ .........
सिंहासन डोले मनु रक्षक का, ठीकर सारे फोड़ रही हूँ
कोंपलें नई फूट रही है, निर्माण सेतु जोड़ रही हूँ
मैं दुर्गेश्वरी मै बोल रही हूँ .......
कान्ता राॅय
भोपाल
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
आदरणीय kanta roy जी आपकी इस बा-कमाल सृजनात्मक रचना में इस्तेमाल शुदद शब्दावली और उनमें उतरे आपके अहसास पढ़ कर आपकी कलम सशक्ता दर्शा गयी |
"सिंहासन डोले मनु रक्षक का
ठीकर सारे फोड़ रही हूँ
कोंपलें नई फूट रही है
निर्माण सेतु जोड़ रही हूँ
दुर्गेश्वरी मै बोल रही हूँ ......."...वाह !!
इस बेहतरीन रचना के लिए आपकी हार्दिल बधाई |
साभार |
जीवंत रचना, "कलम डूबो कर दावात में....समय रूख को मोड़ रही हूँ" हर शब्द में जैसे प्राण हैं| बधाई आपको कांता जी|
मन के अंतर्द्वंदों का सजीव चित्रण बड़ी खूबसूरती से किया गया है ...सुश्री कांता रॉय जी आप एक सिद्ध हस्त रचनाकार की दिशा में यूँ ही आगे बढ़ती रहें...बधाई
बहुत गूढ़ , गंभीर चिंतन से सराबोर रचना के लिए हार्दिक बधाई।
छोटे-से सुझाव हैं, यदि आप को ठीक लगें तो प्रयोग कर सकती हैं...
१) //समय रूख को मोड़ रही हूँ// ... इसमें या तो "-" डाल सकती हैं, "समय-रुख को मोड़ रही हूँ"
अथवा कह सकती हैं कि " समय का रुख मोड़ रही हूँ"
२) जहाँ भी शब्द समुच्चयबोधक हैं, वहाँ ’_’ डाल सकती हैं ... उदाहरणार्थ..
सागर-सी, विषय-जगत, आदि।
एक बहुत सुन्दर रचना के लिए आपको हृदयतल से बधाई।
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