एक पहाड़ी स्त्री का दर्द
मेरे और उनके बीच
एक पारदर्शी दीवार खड़ी है.
वे हँसती, ठिठोली करती
कभी बुरांश की लाली को छेड़ती
चाय के बागानों में उछलती कूदती
मुझे बुलाती हैं –
मैं पारदर्शी दीवार के इस पार
छटपटाकर रह जाती हूँ.
जब काले-सफेद बादलों के हुजूम
आसमान से उतरते, वादियों से चढ़ते
उन्हें घेर लेते,
वे ओझल हो जाती हैं और,
मैं प्यासी, बोझिल ह्र्दय ले
पारदर्शी दीवार के इस पार
छटपटाकर रह जाती हूँ.
बादल तिरते और तैरते हुए
दूर निकल जाते हैं
मुझे फिर से उनकी खिलखिलाहट सुनाई देती है
वे वादियों के उस पार
पहाड़ की ढलान पर चढ़ते हुए
उन चोटियों को छूना चाहती हैं
और मुड़-मुड़ कर मुझे कहती हैं
‘आओ, हम साथ छूएँ उन ऊँचाईयों को’
मैं पारदर्शी दीवार के इस पार
मूक दर्शक बन
छटपटाकर रह जाती हूँ.
पगडंडियाँ बनती, मिटती और फिर बनती
नयी नयी दिशाओं में फैल रही हैं
मेरे पैर अटक गए हैं
रिवाजों और रूढ़ियों के दलदल में –
कोई मेरा हाथ पकड़ो
इस दलदल के बाहर पैर रखने की जगह दो
मैं पारदर्शी दीवार को तोड़
नयी पगडंडियाँ बनाऊंगी,
नयी ऊँचाईयों तक –
यह मेरा वादा है.
.
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
प्रिय गनेश लोहानी जी, रचना पर आने के लिए धन्यवाद लेकिन समझ में नहीं आया कि आप केवल बुरांश की लाली पर ही रुक गए या कि पूरी रचना को पढ़ने का कष्ट किया है. सादर
आदरणीया कांता जी, मेरी रचना के साथ आपका एकात्म होना मुझे पुरस्कृत कर रहा है. हृदय से आभार. सादर.
आदरणीय शरदिंदु मुकर्जी सर, इस गहन प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई निवेदित है. सादर नमन
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