जाने क्यों
क्या ढूँढ़ने उतरते हो
रात के अंधेरे में ओ कोहरे,
चुपचाप, इस धरती की छाती पर
फिर अक्सर थक कर सो जाते हो
पत्तियों के ठिठुरते गात पर
और सहमी, पीली पड़ गयी
तिनके की नोक पर –
गाड़ी के शीशे से
न जाने कहाँ झाँकने की कोशिश में
चिपक जाते हो तुम,
अक्सर.
सुबह की थाप तुम्हें सुनायी नहीं देती
उद्दण्ड बालक की तरह
धरती का बिस्तर पकड़कर,
मुँह फेरकर सोये रहते हो
जब तक कि फुटपाथ पर
रात भर करवटें बदलता हुआ मजदूर
अपनी कुल्हाड़ी, फावड़ा चलाना शुरू नहीं करता;
ढाबे के चौखट पर
पहली कली के खिलने की तरह
पाँच साल का “छोटू”
उठकर बैठ नहीं जाता,
जब तक सड़क किनारे
पानी भरते हुए
वह
गाड़ी के शीशे से तुम्हें हटाकर
अपना नाम लिखने की कोशिश नहीं करता –
मगर फिर भी
अक्सर,
वह सर्वशक्तिमान शिशु
हार मान ही जाता है,
और तुम
रात के अंधेरे से निकलकर
दिन के उजाले पर
नक़ाब बनकर
इठलाते रहते हो....जाने क्यों!!!!
.
(मौलिक व अप्रकाशित)
शरदिंदु/लखनऊ/12.12.2015
Comment
वह सर्वशक्तिमान शिशु
हार मान ही जाता है,
और तुम
रात के अंधेरे से निकलकर
दिन के उजाले पर
नक़ाब बनकर
इठलाते रहते हो....जाने क्यों!!!!---- अति सुन्दर दादा , वैचारिक सांद्रता सदैव आपकी कविता को विशेष बनाती है . बहुत बहुत बधाई
.
// क्या ढूँढ़ने उतरते हो
रात के अंधेरे में ओ कोहरे,
चुपचाप, इस धरती की छाती पर
फिर अक्सर थक कर सो जाते हो
पत्तियों के ठिठुरते गात पर
और सहमी, पीली पड़ गयी
तिनके की नोक पर –//
और फिर निम्न...
//और तुम
रात के अंधेरे से निकलकर
दिन के उजाले पर
नक़ाब बनकर
इठलाते रहते हो....जाने क्यों!!!! //
इतने कोमल भाव... आनन्द आ गया आपकी रचना पढ़ कर, आदरणीय शरदिंदु जी।
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