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आ० भाई बहुत ज्यादा बातें तो मुझे नही पता मै भी सिख रहा हूँ...हाँ मेरा कवाफी को लेकर कहना इसी मिसरे पर था....//हाल-ए-दिल तुम भी सुनाओ , तो हों बाक़ी बातें//...आपकी गज़ल में जहाँ तक मै समझ पा रहा हूँ मतले में काफ़िया 'अआ' पर बंधा है
इस अनुसार उक्त मिसरे में शायद काफिया दोष आ रहा है!
बाकी आ० सौरभ सर की बातों पर अवश्य ध्यान दें!
इस सुंदर प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई ..भाई सालिम जी
भाई सालिम शेख, आपकी ग़ज़ल के मिसरे इस वज़न पर मालूम होते हैं - 2122 / 1122 / 1122 / 22 (112)
मैं आपकी ग़ज़लों के शेरको देख कर ऐसा समझ रहा हूँ. आप इस वज़न पर अपनी ग़ज़ल के मिसरों को बाँधें. यही सही कोशिश कहलायेगी. वर्ना लाख उम्दा कहन हो, अगर सही ढंग से मिसरों का बाँधना न हुआ सारी कोशिश कूड़ा ही मानी जाती है.
विश्वास है, आप मेरे कहे का अर्थ समझ रहे हैं.
शुभेच्छाएँ
आदरणीय Manoj kumar Ahsaas जी , ग़ज़ल में कम-अज़-कम पांच ही अशआर का होना ज़रूरी होता है , दो शेर और जोड़ने से आपका आशय मैं समझा नहीं , कृप्या समझाने का कष्ट करें , सादर
आदरणीय Harash Mahajan साहब , बेहद शुक्रिया
आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी , मैंने ''आ'' को बतौर काफ़िया इस्तेमाल किया है और ''की बातें '' बतौर रदीफ़ , अगर कहीं ग़लती हो तो राहनुमाई फरमाएं , सादर
आदरणीय saalim sheikh जी अच्छे अहसासों से लबरेज़ है आपकी कृति |
krishna mishra 'jaan'gorakhpuri भाई ,एक बार फिर से शुक्रिया , जहाँ तक काफ़िये की बात है अगर आप इस मिसरे की बात कर रहे हैं '' हाल-ए-दिल तुम भी सुनाओ , तो हों बाक़ी बातें''
तो इसमें काफ़ और क़ाफ़ का फ़र्क है जो मेरे ख्याल से जायज़ है , अगर नहीं है , या आप किसी और मिसरे की बात कर रहे हैं तो कृप्या मार्गदर्शन करें , सादर
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी , मिथिलेश वामनकर जी और krishna mishra 'jaan'gorakhpuri जी
आप सभी का बेहद बेहद शुक्रिया , मुझे बह्र का ज्यादा इल्म नहीं है (कोशिश जारी है ) इसलिए मैं इस बह्र का नाम बताने से क़ासिर हूँ
लेकिन मैंने जिस बह्र या दरअसल लय के आधार पर ये ग़ज़ल कही है , वो अजमल सुल्तानपुरी साहब की ये नज़्म है
''मैं तेरा शाहजहाँ तू मेरी मुमताज़ महल
आ तुझे प्यार की अनमोल निशानी दे दूँ ''
अगर आप में से कोई इस बह्र के नाम से वाकिफ़ हो तो यहाँ लिखने का कष्ट करें
आदरणीय Sushil Sarna जी , बेहद शुक्रिया
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