गंगा तो पवित्र है
इन्सानों के दुष्कर्म
अनवरत बहाना इसका चरित्र है
मैली पड़ जाती है
फिर भी बहती जाती है
आखिर माँ है
चुप चाप सहती जाती है
मगर दूषित करने वाले
माँ पुकार कर भी
ज़हर पिलाते जाते हैं
दुखों का अम्बार जुटाते जाते हैं
कहाँ किसी को ये प्यार दे पाते हैं
स्वार्थ ही तो कर्म है इनका
बस यही धर्म निभाते जाते हैं
इक दिन ये राख़ बन जाएंगे
माँ से मिलने फिर वापस आएंगे
किस मुहं से मुक्ति मांग पाएंगे
मगर गंगा तो आखिर गंगा माँ है
मना भी तो ना कर पायेगी
माँ क्या होती है
जो जीते जी ना समझ सके
अब राख़ बन क्या ख़ाक समझ पाएंगे !!
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मौलिक व अप्रकाशित
Comment
एक ज्वलंत मुद्दे पर अच्छी प्रस्तुति I बधाई मोहन जी
आदरणीय JAWAHAR LAL SINGH जी हार्दिक आभार ...सादर
आदरणीया kanta roy जी प्रोत्साहन के लिए तहे दिल से आभार....सादर
बहुत ही सुन्दर भावनात्मक और व्यावहारिक पक्ष रक्खा है आपने, बधाई!
आदरणीय कृष्णा जी आपकी सकारात्मक टिप्पणी पाकर हृदय प्रसन्न हुआ ...बहुत बहुत आभार आपका ...सादर
वाह आ० इन्तजार सर! आपकी कविताओं के भाव सदैव से निराला रहा है! और उसमें सार्थक विषयों ने एक नई चेतना जगा दी है! बहुत ही बेहतरीन सर! हार्दिक बधाई!
आदरणीय Neeraj Kumar 'Neer' जी आपका हार्दिक आभार एवं मंगलकामनाएँ...सादर
आदरणीय Sulabh Agnihotri जी हार्दिक आभार ...सादर
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी आपकी सकारात्मक टिप्पणी पाकर दिल ख़ुश हुआ ...बहुत बहुत धन्यवाद ...सादर
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