2122--2122--2122--212
इस मकां को बामो-दर से एक घर करती रही |
माँ मुसलसल काम अपना उम्र भर करती रही |
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धूप बारिश सर्दियों को मुख़्तसर करती रही |
बीज की कुछ कोशिशें मिलकर शज़र करती रही |
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मेरे सिर पर हाथ फेरा था कभी तहजीब ने |
पुरअसर थी वो दुआ अब तक असर करती रही |
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दर्द देखा जो किसी का चलते-चलते रुक गए |
साथ में ताउम्र इक आदत सफ़र करती रही. |
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जब तलक खामोशियाँ थी दिल मेरे काबू में था |
बात निकली और दिल को बेखबर करती रही |
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आदमी जैसे मशीनी दम-ब-दम होता रहा |
जिंदगी गुमसुम अकेले में बसर करती रही |
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या पलक उठती नहीं, या तो पलक झुकती नहीं |
वो निगाहें एक जादू रात भर करती रही |
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मैं इधर कुरआन पढ़कर आरती करता रहा |
वो दुआ में पाठ गीता का उधर करती रही |
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Comment
आदरणीय मिथिलेश भाई , खूबसूरत मतले से शुरु हुई गज़ल आखिर तक बहुत सुन्दर हुई है है , पूरी गज़ल के लिये आपको हार्दिक बधाइयाँ ॥
मैं इधर कुरआन पढ़कर आरती करता रहा
वो दुआ में पाठ गीता का उधर करती रही -- हासिले गज़ल शेर के लिये अलग से बधाई आपको ।
इस मकां को बामो-दर से एक घर करती रही
माँ मुसलसल काम अपना उम्र भर करती रही......शानदार मतला कहा सर जी दिल को छू गया |
दर्द देखा जो किसी का चलते-चलते रुक गए
साथ में ताउम्र इक आदत सफ़र करती रही..... वाह वाह सर क्या खूब कहा वैसे ये शिफत भी माँ से ही आती है|
मैं इधर कुरआन पढ़कर आरती करता रहा
वो दुआ में पाठ गीता का उधर करती रही बहुत खूब बहुत खूब बहुत खूब...
उम्दा ग़ज़ल के लिए मुबारकबाद आदरणीय मिथिलेश जी
आदरणीय मिथिलेश जी आजकल आपकी कलम कमाल कर रही है ..एक से बढ़कर एक शानदार ग़ज़ल ..आप से निवेदन है कि उर्दू के शब्दों के अर्थ जैसा आप पहले करते थे अवश्य करा कीजिये ..इस रचना के लिए हार्दिक बधाई सादर
आदरणीय रवि जी, ग़ज़ल के प्रयास पर आपकी सार्थक प्रतिक्रिया पाकर अभिभूत हूँ. आपका हृदय से आभारी हूँ. ये ग़ज़ल कई दिनों से लिखकर रखी थी. बार बार सुधार करता रहा हूँ लेकिन एक बिंदु पर आकर मुझे गुंजाइश ही नहीं लगी और लगी भी तो मैं उसे ठीक नहीं कर पा रहा था. यही सोचकर कि और बेहतर बनाने में विद्वतजन की राय अवश्य कारगर होगी, इसे प्रस्तुत कर दिया. आपका अमूल्य मार्गदर्शन मिला है तदनुसार पुनः प्रयास करता हूँ. ग़ज़ल को समय देकर सराहना, अमूल्य और सार्थक प्रतिक्रिया आपका बहुत बहुत धन्यवाद .
आरणीय मिथिलेश जी
पहले तो एक बहुत ही शानदार ग़ज़ल के लिये दिल से दाद कुबूल करिये ।
एक पाठक के तौर पर कहना चाहेंगे
कया रवानी है अशआर में । बहुत खूब ।
उसी पाठक के तौर पर शेर दर शेर बात करें तो मतले से जो सफर हुस्ने मतला और बाकी के तीन शेर तक चला तो उसमें
आपका अनुभव शेर दर शेर बयान होता चला गया । बहुत खूब ।
उसके बाद के दो अशआर में मिसरा ए सानी जितने खूबसूरत बन पड़े है उतनी कशिश हमें उला मे नहीं लगी । बेहतर को और बेहतर बनाने में विद्वतजन की राय अवश्य कारगर होगी ।
और
मैं इधर कुरआन पढ़कर आरती करता रहा
वो दुआ में पाठ गीता का उधर करती रही
शानदार । यकजहती का आलम, क्या कहने इस शेर को आखिरी शेर का दर्जा दीजिये क्योंकि इस शेर को कहने के बाद ग़जल में कुछ कहने के लिये नहीं बचता ।
अच्छी ग़ल़ल के लिये पुन: बहुत बहुत बधाई स्वीकार करें ।
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