For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

“आप सरकारी नौकरी के साथ समाज सेवा कैसे कर लेते है?”

“जब नौकरी से फ्री होता हूँ तो खाली समय का उपयोग कर लेता हूँ.”

 “आपको झुग्गी-बस्ती में शिक्षा के प्रसार की प्रेरणा कहाँ से मिली?”

“हा हा हा... प्रेरणा व्रेरणा कुछ नहीं भाई.... स्लम एरिया के पास वाले सिग्नल पर बच्चों को सामान बेचते और भीख मांगते देखा, तो स्लम में चला गया... लोगों से बात की तो लगा कुछ करना होगा और असली काम तो वालेंटियर ही कर रहे है.”

“आपको सब पर्यावरण-मित्र कहते है क्योकिं आप इतने बड़े ओहदे पर है फिर भी पैदल ऑफिस जाते है. क्या ये सही है?”

“हा हा हा .... पर्यावरण मित्र तो हूँ लेकिन... भई मेरा घर ऑफिस के पास ही है इसलिए पैदल ही चल देता हूँ.”

“सभी जानना चाहते है कि आपके इस असाधारण व्यक्तित्व का क्या राज़ है?”

“भाई... बहुत ही साधारण आदमी हूँ ..... पता नहीं आपको क्या असाधारण लगा?.....”

इसके बाद वह एक भी प्रश्न नहीं कर सका.

-----------------------------------------------------------
(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
------------------------------------------------------------

Views: 794

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 8, 2015 at 10:49pm

जी... सही कहा आपने .... आभार .... नमन 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 8, 2015 at 10:43pm

वाह ! 

भाई... बहुत ही साधारण आदमी हूँ ... पता नहीं आपको क्या असाधारण लगा?... 

फिर वह एक भी प्रश्न नहीं कर सका


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 8, 2015 at 7:01pm

आदरणीय सौरभ सर, लघुकथा की इस विशिष्ट विधा के विविध आयाम कई लघुकथाओं में देखने को मिले उसी के अनुसार अभ्यास के क्रम में इस लघुकथा का प्रयास किया है, लघुकथा की इस शैली में रचना के शिल्प  पर स्पष्ट नहीं था. जिस मूल भावना से यह लघुकथा लिखी है और जिन शब्दों का प्रयोग किया है उनके ध्वन्यार्थ क्या संप्रेषित हो रहे है ये आपकी प्रतिक्रिया और मार्गदर्शन से स्पष्ट हुआ. आपने सही लिखा है- 

//

लघुकथा में वर्णित साक्षात्कार शैली के संवादों में सहजता बहुत अच्छे ढंग से उभरी है. लेकिन दो वाक्य तनिक और कसावट चाहते दिख रहे हैं. 

१. एक दिन दौरे के लिए जा रहा था तो स्लम एरिया के पास वाले सिग्नल पर बच्चों को सामान बेचते और भीख मांगते देखा, तो अपना दौरा निरस्त कर स्लम में चला गया. लोगों से बात की और वालेंटियर भी मिल गए. बस काम शुरू कर दिया.

२. मेरा साधारण होना 

देखिये, ये दोनों वाक्य उस साक्षात्कारकर्ता को दिये गये उत्तर हैं ! और यह भी भान है कि उस व्यक्तित्व का कौन सा पहलू इन वाक्यों से उभर कर आ रहा है. किन्तु इन दोनों वाक्यों को मनोवैज्ञानिक आयाम के सापेक्ष देखियेगा. और फिर उस व्यक्ति की मनोदशा की सोचियेगा. यदि उत्तरदाता ऐसे ही उत्तर देता है, तो वह साधारण व्यक्तित्व का मालिक न हो कर ढोंगी प्रतीत हो रहा है. उसकी उत्कट ’चाहना’ है कि लोगों के बीच वह आम-आदमी की तरह दिखे. लोग उसे ’साधारण’ दिखते हुए ’बड़ा-आदमी’ मानें. //

आपके मार्गदर्शन के लिए हृदय से आभारी हूँ. सादर. नमन 

आपके मार्गदर्शन अनुसार पुनः प्रयास किया है -

---------------------------------------------------------

“आप सरकारी नौकरी के साथ समाज सेवा कैसे कर लेते है?”

“जब नौकरी से फ्री होता हूँ तो खाली समय का उपयोग कर लेता हूँ.”

 “आपको झुग्गी-बस्ती में शिक्षा के प्रसार की प्रेरणा कहाँ से मिली?”

हा हा हा... प्रेरणा व्रेरणा कुछ नहीं भाई.... स्लम एरिया के पास वाले सिग्नल पर बच्चों को सामान बेचते और भीख मांगते देखा, तो स्लम में चला गया... लोगों से बात की तो लगा कुछ करना होगा और असली काम तो वालेंटियर ही कर रहे है.”

“आपको सब पर्यावरण-मित्र कहते है क्योकिं आप इतने बड़े ओहदे पर है फिर भी पैदल ऑफिस जाते है. क्या ये सही है?”

“हा हा हा .... पर्यावरण मित्र तो हूँ लेकिन... भई मेरा घर ऑफिस के पास ही है इसलिए पैदल ही चल देता हूँ.”

“सभी जानना चाहते है कि आपके इस असाधारण व्यक्तित्व का क्या राज़ है?”

भाई... बहुत ही साधारण आदमी हूँ और एक साधारण सा जीवन है मेरा.... पता नहीं आपको क्या असाधारण लगा?..... शायद मेरा साधारण होना.”

इसके बाद वह एक भी प्रश्न नहीं कर सका.

Comment by kanta roy on August 8, 2015 at 11:04am
कथा के विश्लेषण का एक बेहद सूक्ष्म दृष्टिकोण का यहाँ प्रत्यक्ष दर्शन हुआ है । गहन अध्ययन और चिंतन का साक्षात् नमूना । कुछ देर तक कथा को पढकर उसके परिदृश्य को अपने गहन विचारों तले पोषित करने के पश्चात ही ये विश्लेषण उभर कर प्रत्यक्षित होते है । दौड़ - दौड़ कर पढ़ने पर ये चिंतन कहीं मानस - पटल पर विलुप्त प्रायः ही रहता है । सुंदर और सटीक समीक्षा लघुकथा की ।

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 8, 2015 at 9:51am

आपकीप्रस्तुति केलिए धन्यवाद आदरणीय मिथिलेशभाई. आपकी यह लघुकथा वैचारिक रूप से और फिर कथ्य की दृष्टि से उत्तम है. लेकिन इसके प्रस्तुतीकरण में मुझे तनिक और सहजता की अपेक्षा महसूस हो रही है. संवाद वैयक्तिक गुण को उभारते हुए अवश्य हैं लेकिन, एक शब्द होता है न, नाटकीयता, यह नकारात्मक शब्द नहीं है. विधाओं में यदि लघुता अनिवार्य हो तो चुटीलापन यानी नाटकीयता अपरिहार्य हो जाती है. उदाहरण केलिए पद्य विधाओं में  शब्द-चित्र या क्षणिकाओं को लें. वहाँ भी नाटकीयता की महत्त्वपूर्ण भूमिका है. लघुकथा का स्वरूप ही कौतुक का आह्वान करते, चुटीलेपन पर आधारित है. पंच-लाइन या मारक-वाक्यों की आवश्यकता ही इसी कारण होती है. 

लघुकथा में वर्णित साक्षात्कार शैली के संवादों में सहजता बहुत अच्छे ढंग से उभरी है. लेकिन दो वाक्य तनिक और कसावट चाहते दिख रहे हैं. 

१. एक दिन दौरे के लिए जा रहा था तो स्लम एरिया के पास वाले सिग्नल पर बच्चों को सामान बेचते और भीख मांगते देखा, तो अपना दौरा निरस्त कर स्लम में चला गया. लोगों से बात की और वालेंटियर भी मिल गए. बस काम शुरू कर दिया.

२. मेरा साधारण होना 

देखिये, ये दोनों वाक्य उस साक्षात्कारकर्ता को दिये गये उत्तर हैं ! और यह भी भान है कि उस व्यक्तित्व का कौन सा पहलू इन वाक्यों से उभर कर आ रहा है. किन्तु इन दोनों वाक्यों को मनोवैज्ञानिक आयाम के सापेक्ष देखियेगा. और फिर उस व्यक्ति की मनोदशा की सोचियेगा. यदि उत्तरदाता ऐसे ही उत्तर देता है, तो वह साधारण व्यक्तित्व का मालिक न हो कर ढोंगी प्रतीत हो रहा है. उसकी उत्कट ’चाहना’ है कि लोगों के बीच वह आम-आदमी की तरह दिखे. लोग उसे ’साधारण’ दिखते हुए ’बड़ा-आदमी’ मानें. 

वैसे इस लघुकथा का होना लघुकथा विधा पर आपकी सतत क्रियाशीलता का सम्यक उदाहरण है. बधाई !

शुभेच्छाएँ. 

 

Comment by kanta roy on August 8, 2015 at 9:31am
वाह !!! साधारण होना बहुत ही दुर्लभ प्रकृति है आज के जमाने में आदरणीय मिथिलेश जी । वो समय दूर नहीं कि " साधारण "होने के लिए चाहत रखने वालों को भी कोई स्पेशल कोर्स करना होगा इसके लिए । मन - निर्मल हो तो ही ये साधारण व्यक्ति बन पाते है । लाग - लपेट में लिप्त होकर साधारण बनना कहाँ संभव है । बधाई इस सार्थक रचना के लिये आपको ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 7, 2015 at 11:10pm

आदरणीय रवि जी, लघुकथा के इस प्रयास के मुखर अनुमोदन के लिए हार्दिक आभार.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 7, 2015 at 11:10pm

आदरणीय ओमप्रकाश जी, लघुकथा के इस प्रयास के मुखर अनुमोदन के लिए हार्दिक आभार.

Comment by Ravi Prabhakar on August 7, 2015 at 8:01am

आदरणीय मिथिलेश भाई जी आपकी इस लघुकथा ने स्‍व. राजेश खन्‍ना साहिब की फिल्‍म 'बावर्ची' के एक संवाद की याद दिला ताजा कर दी ; It is so simple to be happy ... but it is so difficult to be simple .  बहुत उम्‍दा कथा बना है । साधारणता में से असाधारणता ढूंढना ही तो लघुकथा है । शुभकामनाएं स्‍वीकार कर अनुग्रहीत करें ।

Comment by Omprakash Kshatriya on August 7, 2015 at 7:49am

आदरणीय  मिथिलेश वामनकर जी , आप का साधारण होना ही  आप की लघुकथा को असाधारण बना रहा है. इस उत्तम लघुकथा की मेरी ओर से बधाई . आप इसी तरह लिखते रहे . यही कामना है.

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' posted a blog post

सुखों को तराजू में मत तोल सिक्के-लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

१२२/१२२/१२२/१२२ * कथा निर्धनों की कभी बोल सिक्के सुखों को तराजू में मत तोल सिक्के।१। * महल…See More
4 hours ago
Admin posted discussions
yesterday
Admin added a discussion to the group चित्र से काव्य तक
Thumbnail

'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 169

आदरणीय काव्य-रसिको !सादर अभिवादन !!  ’चित्र से काव्य तक’ छन्दोत्सव का यह एक सौ…See More
Monday
Nilesh Shevgaonkar commented on Nilesh Shevgaonkar's blog post ग़ज़ल नूर की - ताने बाने में उलझा है जल्दी पगला जाएगा
"धन्यवाद आ. लक्ष्मण जी "
Monday
Nilesh Shevgaonkar commented on Nilesh Shevgaonkar's blog post ग़ज़ल नूर की - मुक़ाबिल ज़ुल्म के लश्कर खड़े हैं
"धन्यवाद आ. लक्ष्मण जी "
Monday
Chetan Prakash commented on लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s blog post घाव भले भर पीर न कोई मरने दे - लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"
"खूबसूरत ग़ज़ल हुई, बह्र भी दी जानी चाहिए थी। ' बेदम' काफ़िया , शे'र ( 6 ) और  (…"
Sunday
Chetan Prakash commented on PHOOL SINGH's blog post यथार्थवाद और जीवन
"अध्ययन करने के पश्चात स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है, उद्देश्य को प्राप्त कर ने में यद्यपि लेखक सफल…"
Sunday

सदस्य टीम प्रबंधन
Dr.Prachi Singh commented on PHOOL SINGH's blog post यथार्थवाद और जीवन
"सुविचारित सुंदर आलेख "
Saturday

सदस्य टीम प्रबंधन
Dr.Prachi Singh commented on लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s blog post घाव भले भर पीर न कोई मरने दे - लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"
"बहुत सुंदर ग़ज़ल ... सभी अशआर अच्छे हैं और रदीफ़ भी बेहद सुंदर  बधाई सृजन पर "
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on अजय गुप्ता 'अजेय's blog post ग़ज़ल (अलग-अलग अब छत्ते हैं)
"आ. भाई अजय जी, सादर अभिवादन। परिवर्तन के बाद गजल निखर गयी है हार्दिक बधाई।"
Jul 3
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on Nilesh Shevgaonkar's blog post ग़ज़ल नूर की - ताने बाने में उलझा है जल्दी पगला जाएगा
"आ. भाई नीलेश जी, सादर अभिवादन। बेहतरीन गजल हुई है। सार्थक टिप्पणियों से भी बहुत कुछ जानने सीखने को…"
Jul 3
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on Nilesh Shevgaonkar's blog post ग़ज़ल नूर की - मुक़ाबिल ज़ुल्म के लश्कर खड़े हैं
"आ. भाई नीलेश जी, सादर अभिवादन। सुंदर गजल हुई है। हार्दिक बधाई।"
Jul 2

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service