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ग़ज़ल: जब-जब किसी परिंदे ने पंख फड़फड़ाए - सुलभ

बहर - 22 12122 22 12122 

जब-जब किसी परिंदे ने पंख फड़फड़ाए
वो बदहवास होकर ख़ंजर निकाल लाए

दुनियाँ की चाल चलनी जिस रोज़ से शुरू की
अपनी निगाह से हम गिर के फिर उठ न पाये

वो जानते हैं उनका भगवान जानता है
कानून से भले ही सब जुर्म बख्शवाये

रोज़े खतम न हों तो, क्या चाँद का निकलना
हम ईद मान लेंगे जब चाँद मुस्कुराये

मंजि़ल थी क़ामयाबी, ऊँचा महल अटारी
ईमान बेच आये, ईंटें ख़रीद लाये

हर फूल के बदन को घावों से भर दिया है
नाख़ून को थे नाहक़ ही दस्तख़त सिखाये

अच्छे दिनों की खातिर करतब किये हज़ारों
जब भी बुरे दिन आये, आये बिना बुलाये

मौलिक और अप्रकाशित

-------- सुलभ अग्निहोत्री

Views: 614

Comment

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Comment by Sulabh Agnihotri on August 11, 2015 at 10:40am

बहुत-बहुत आभार  मिथिलेश वामनकर जी !


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 10, 2015 at 11:01pm

आदरणीय सुलभ अग्निहोत्री जी बहुत बढ़िया ग़ज़ल हुई है. शेर दर शेर दाद कुबूल फरमाएं 

सादर 

कृपया ध्यान दे...

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