पुरख़तर इश्क की राहें हैं तो चलते क्यूँ हैं
चोट खाकर ही मुहब्बत में सँभलते क्यूँ हैं
प्यारा के दीप इन आँखों में यूँ जलते क्यूँ हैं
चाँदनी रात में अरमान मचलते क्यूँ हैं
रात में ख़्वाब इन आँखों पे हुकूमत करते
सुब्ह होते ही ये हालत बदलते क्यूँ हैं
बेवफाई से हुए इश्क में जो दिल पत्थर
प्यार की आंच से ये फिर से पिघलते क्यूँ हैं
दूर से खूब लुभाते हैं ये तपते सहरा
तिश्नगी में ये मनाज़िर हमे छलते क्यूँ हैं
मसअले आम न चाहे ये बनाना आँखें
बेरहम अश्क ये रुख्सार से ढलते क्यूँ हैं
दिल के बरखे पे लिखे दर्द भला कम हैं क्या
‘राज’ जज्बात कलम से ये निकलते क्यूँ हैं
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आ० लक्ष्मण भैया,आप जैसे ग़ज़लकार से दाद पाना मेरे लिए बहुत मायने रखता है दिल से बहुत- बहुत आभार.
प्रिय तनूजा जी,आप जैसे गंभीर रचनाकार से दाद पाकर ग़ज़ल संतुष्ट होती है तहे दिल से आभार.
आ0 राजेश बहन , इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए कोटि कोटि बधाई .
क्या खूब लिखती हैं मै'म हर शब्द भावनाओं से भीगा हुआ I बहुत सुन्दर
आ० गिरिराज जी ,आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरा लिखना सार्थक हुआ. तहे दिल से आभार आपका |
सुब्ह होते ही ये हालत बदलते क्यूँ हैं---हालत के स्थान पर हालात पढ़ें (टंकण त्रुटी आ गई है )
आदरणीया राजेश जी , मतला बहुत खूब कहा है आपने , क्या बात है
पुरख़तर इश्क की राहें हैं तो चलते क्यूँ हैं
चोट खाकर ही मुहब्बत में सँभलते क्यूँ हैं -- लाजवाब -- ग़ज़ल के लिये और इस मतले के लिये आपको हार्दिक बधाइयाँ ।
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