2122 2122 2122 212
लड़खड़ाहट चाहता हूँ मैं संभल जाने के बाद
धूप दिल में चुभ रही है दिन निकल जाने के बाद
सबसे पहला शेर था मैं एक ग़ज़ल की सोच का
और खारिज हो गया था लय बदल जाने के बाद
ठोस उस आधार पर लिपटी थी इक चिकनी परत
खुद से शिकवा कर रहे है हम फिसल जाने के बाद
खुश्क आँखों की ज़ुबा को यूँ समझ लो तुम सनम
ख़ाली बरतन जल रहा है सब उबल जाने के बाद
सर छुपाये फिर रहा था रौशनी में दर-ब-दर
चाँद सा खिलने लगा गम शाम ढल जाने के बाद
बेखुदी के दौर में भी कितने तुम महफूज़ थे
नाम रक्खा था छुपाकर सब उगल जाने के बाद
इसलिये ही हमने तेरी याद के आँसु लिखें
रूह इनमे छुप सकेगी जिस्म जल जाने के बाद
मौलिक और अप्रकाशित
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//सबसे पहला शेर था मैं एक ग़ज़ल की सोच का
और खारिज हो गया था लय बदल जाने के बाद
ठोस उस आधार पर लिपटी थी इक चिकनी परत
खुद से शिकवा कर रहे है हम फिसल जाने के बाद
खुश्क आँखों की ज़ुबा को यूँ समझ लो तुम सनम
ख़ाली बरतन जल रहा है सब उबल जाने के बाद//
सभी शेर एक-से-बढ़कर एक ! मज़ा आ गया । बधाई।
आदरणीय मनोज भाई शानदार ग़ज़ल हुई है शेर दर शेर दाद कुबूल फरमाएं...
आदरणीय मनोज भाई , सुन्दर ग़ज़ल हुई है हार्दिक बधाई स्वीकारें .
दूसरे शेर में एक ग़ज़ल की जगह इक गजल कर ले तो प्रवाह अच्छा बनेगा . शेष शुभ शुभ ....
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