झुमका झांझर चूड़ियाँ, करधन नथ गलहार |
बिंदी देकर मांग भर,.....कर साजन सिंगार ||
सूनी सेज न भाय रे, छलकें छल-छल नैन |
पी-पी कर रतिया कटे,....दिन करते बेचैन ||
उस आँगन की धूल भी, करती है तकरार |
अपनेपन से लीपकर , जहां बिछाया प्यार ||
हरियाली घटने लगी, कृषक हुए सब दीन |
राजनीति जब देश की, खाने लगी जमीन ||
टहनी के हों पात या, हों फुनगी के फूल |
दोनों तरु की शान हैं, तरु दोनों का मूल ||
लगन लगे जब प्रेम की, बहे प्रीति की धार |
मन डूबे मँझधार में,......तन उतरे उस पार ||
मोल न जाने वक्त का, घाम पड़े तक सोय |
पाये सपनों में ख़ुशी,.....नैन खुले तब रोय ||
मौलिक/अप्रकाशित.
Comment
आदरणीया कान्ता रॉय जी सादर, प्रस्तुत दोहा छंदों के भावों को आपने महसूस किया है. मेरे रचनाकर्म को सार्थकता मिली है. आपका हृदयातल से आभार. सादर.
सात दोहे में उकेरे है आपने जीवन के सात रंग। दुल्हन के सिंगार का साजन से नाता का बड़ा ही कोमल भाव हुआ है वहीं दूसरे तरफ आँगन के लीपन में रिश्तों का प्यार समाया है। राजनितिक विसंगतियों को, किसान का दर्द भी समेट लिए है आपने इन पंक्तियों में।
लगन लगे जब प्रेम की, बहे प्रीति की धार |
मन डूबे मँझधार में,......तन उतरे उस पार ||------ चैतन्य मन को भी यहाँ बहुत खूब परिभाषित किये है। बधाई स्वीकार करे इस अद्वितीय रचना के लिए।
दोहे पसंद करने के लिए आपका दिल से आभार आदरणीय सतविन्दर कुमार जी. सादर.
आदरणीय श्याम नारायण वर्मा साहब सादर, प्रस्तुत दोहे पसंद कर उत्साहवर्धन करने के लिए आपका बहुत-बहुत आभार. सादर.
आदरणीय जयनित कुमार मेहता "जय" जी सादर, प्रस्तुति पर उत्साहवर्धन करने के लिए आपका दिल से आभार. सादर.
वाह बेहद खूबसूरत प्रस्तुति … हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीय। |
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