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1222 1222 1222 1222
हैं हँसते मुस्कुराते हम छिपाते जानें कितने ग़म।
हाँ चलते गुनगुनाते हम मिटाते जानें कितने ग़म।।

हमारे होंठ जब लरज़े सुनाएँ दास्ताँ अपनी।
अचानक रूबरू मेरे हैं आते जानें कितनें ग़म।।

कभी रोते हुए बच्चे कभी तो छटपटाती माँ।
विवशता युक्त आँखों से बताते जानें कितने ग़म।।

वो जो चलती हुई गाड़ी से पटरी पर गयी फेंकी।
बिलखती आँख के आंसूँ सुनाते जानें कितने ग़म।।

दिखी है लाश लटकी पेड़ पर जब अन्नदाता की।
निवाले में तभी से हम हैं खाते जानें कितने ग़म।।

यहाँ अपनी कहानी में तो बस इक दिल ही टूटा है।
फूंके घर जिनके उनको तो जगाते जाने कितने ग़म।।

मौलिक अप्रकाशित

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Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on October 14, 2015 at 8:33pm
आदरणीय मिथिलेश सर; ग़ज़ल की तारीफ के लिए शुक्रिया।।
Comment by Jayprakash Mishra on October 14, 2015 at 7:50pm
दिखी है लाश लटकी पेड़ पर जब अन्नदाता की।निवाले में तभी से हम हैं खाते जानें कितने ग़म।।
Sochne par vivash karta hai ye sher,badhaai Pankaj ji
Comment by Jayprakash Mishra on October 14, 2015 at 7:49pm
दिखी है लाश लटकी पेड़ पर जब अन्नदाता की।निवाले में तभी से हम हैं खाते जानें कितने ग़म।।
Sochne par vivash karta hai ye sher,badhaai Manoj ji

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on October 14, 2015 at 4:09pm

आदरणीय पंकज जी बढ़िया ग़ज़ल हुई है हार्दिक बधाई
ये बह्र इतनी सरल और सुरीली है कि इसमें बहुत ज्यादा मात्रा गिराने से मिसरों का सौन्दर्य प्रभावित होता है. विशेष तौर पर रदीफ़ या काफिये में मात्रा गिराने पर, सादर

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