2122---2122---2122---212 |
धूप की तकसीम में कुछ तो हुआ है देखना |
आज फिर सूरज सवालों में घिरा है देखना |
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नीम के ये जर्द पत्ते आंसुओं-से झर गए |
इस फिज़ा की आँख में कंकड़ फंसा है, देखना |
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बस शिकायत हाय, माना आप ही सच्चे मगर |
जिंदगी में कुछ बुरा तो कुछ भला है, देखना |
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टहनियों के पोर में कुछ ख़ाब बूंदों के सजे |
इक तलातुम से शज़र फिर से हिला है, देखना |
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छोड़ ए.सी., धूप में इक पेड़ के नीचे चलो |
आपको गर प्याज-रोटी का मज़ा है, देखना |
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आज सारे सांप बांबी से नदारद हो गए |
नौ निजामत में यहाँ किसका पता है देखना? |
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बारिशों की आँख में गर कोहरा छा जाए तो |
बादलों की हर गली में क्या घटा है देखना? |
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खुशनुमा सी एक बस्ती आज बस्तर हो गई |
खून से किसका मुकद्दर कब खिला है देखना? |
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खिन्न पत्थर हो गए हैं, खुल रही हैं मुट्ठियाँ |
कांच का घर रात भर से क्यों सजा है देखना? |
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नील घाटी थी जो कल तक, सुर्ख परबत हो गई |
जिंदगी गिरगिट सरीखी, क्या बला है देखना? |
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हो खता इस पार की या हो खता उस पार की |
सरहदों पे खून ग़ज़लों का बहा है देखना. |
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Comment
आदरणीय नादिर ख़ान सर, आप जैसे ग़ज़लगो से दाद पाना मेरे लिए मायने रखता है. ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार
आदरणीय बागी सर, ग़ज़ल पर आपका मुखर अनुमोदन पाकर दिल खुश हो गया. ग़ज़ल की सराहना मार्गदर्शन और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. आपके मार्गदर्शन अनुसार सुधार करता हूँ. सादर
आदरणीया कांता जी, ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार
आदरणीय शिज्जू भाई जी, ग़ज़ल आपको पसंद आई जानकार ख़ुशी हुई. ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. तलातुम वाले शेर पर पुनः प्रयास करता हूँ सादर
खुशनुमा सी एक बस्ती आज बस्तर हो गई |
खून से किसका मुकद्दर कब खिला है देखना? |
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खिन्न पत्थर हो गए हैं, खुल रही हैं मुट्ठियाँ |
कांच का घर रात भर से क्यों सजा है देखना? आदरणीय मिथिलेश जी आप की हर रचना कमाल की होती है । कठिन शेर भी आप बड़ी आसानी से खूबसूरती से कह जाते हैं ।वाह भाई वाह .... |
आय हाय हाय, पूरी ग़ज़ल तरन्नुम में गुनगुना गया, सच कहूँ तो आनंद आ गया,
//खिन्न पत्थर हो गए हैं, खुल रही हैं मुट्ठियाँ
कांच का घर रात भर यूँ क्यों सजा है देखना?//क्या बात है बहुत ही सुन्दर.
आदरणीय मिथिलेश जी, अंतिम शेर पर अलग से दाद देता हूँ, बहुत बहुत बधाई इस खुबसूरत ग़ज़ल पर.
धूप की तकसीम में कुछ तो हुआ है देखना
आज फिर सूरज सवालों में घिरा है देखना।।।। वाह ! क्या खूब शेर हुई है ये। लाजवाब !! बहुत खूब ग़ज़ल कही है आपने आदरणीय मिथिलेश जी। बधाई हो !
निवेदन है कि कृपया मतला इस तरह पढ़ा जावे-
धूप की तकसीम में कुछ तो हुआ है देखना |
आज फिर सूरज सवालों से घिरा है देखना |
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