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धूप की तकसीम में कुछ तो हुआ है देखना-- (ग़ज़ल) -- मिथिलेश वामनकर

2122---2122---2122---212

धूप की तकसीम में कुछ तो हुआ है देखना

आज फिर सूरज सवालों में घिरा है देखना

 

नीम के ये जर्द पत्ते आंसुओं-से झर गए

इस फिज़ा की आँख में कंकड़ फंसा है, देखना

 

बस शिकायत हाय, माना आप ही सच्चे मगर

जिंदगी में कुछ बुरा तो कुछ भला है, देखना

 

टहनियों के पोर में कुछ ख़ाब बूंदों के सजे

इक तलातुम से शज़र फिर से हिला है, देखना

 

छोड़ ए.सी., धूप में इक पेड़ के नीचे चलो 

आपको गर प्याज-रोटी का मज़ा है, देखना

 

आज सारे सांप बांबी से नदारद हो गए

नौ निजामत में यहाँ किसका पता है देखना?

 

बारिशों की आँख में गर कोहरा छा जाए तो 

बादलों की हर गली में क्या घटा है देखना?

 

खुशनुमा सी एक बस्ती आज बस्तर हो गई

खून से किसका मुकद्दर कब खिला है देखना?

 

खिन्न पत्थर हो गए हैं, खुल रही हैं मुट्ठियाँ

कांच का घर रात भर से क्यों सजा है देखना?

 

नील घाटी थी जो कल तक, सुर्ख परबत हो गई

जिंदगी गिरगिट सरीखी, क्या बला है देखना?

 

हो खता इस पार की या हो खता उस पार की

सरहदों पे खून ग़ज़लों का बहा है देखना.

 

 

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(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
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Comment

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on October 22, 2015 at 11:31pm

आदरणीय  नादिर ख़ान  सर,  आप जैसे ग़ज़लगो से दाद पाना मेरे लिए मायने रखता है. ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on October 22, 2015 at 11:30pm

आदरणीय बागी सर, ग़ज़ल पर आपका मुखर अनुमोदन पाकर दिल खुश हो गया. ग़ज़ल की सराहना मार्गदर्शन और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. आपके मार्गदर्शन अनुसार सुधार करता हूँ. सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on October 22, 2015 at 11:29pm

आदरणीया कांता जी,  ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on October 22, 2015 at 11:28pm

आदरणीय शिज्जू भाई जी, ग़ज़ल आपको पसंद आई जानकार ख़ुशी हुई. ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. तलातुम वाले शेर पर पुनः प्रयास करता हूँ सादर 

Comment by नादिर ख़ान on October 22, 2015 at 10:36pm

खुशनुमा सी एक बस्ती आज बस्तर हो गई

खून से किसका मुकद्दर कब खिला है देखना?

 

खिन्न पत्थर हो गए हैं, खुल रही हैं मुट्ठियाँ

कांच का घर रात भर से क्यों सजा है देखना?

आदरणीय मिथिलेश जी आप की हर रचना कमाल की होती है ।

कठिन शेर भी आप बड़ी आसानी से खूबसूरती से कह जाते हैं ।वाह भाई वाह ....


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on October 22, 2015 at 8:56am

आय हाय हाय, पूरी ग़ज़ल तरन्नुम में गुनगुना गया, सच कहूँ तो आनंद आ गया, 

//खिन्न पत्थर हो गए हैं, खुल रही हैं मुट्ठियाँ
कांच का घर रात भर यूँ क्यों सजा है देखना?//क्या बात है बहुत ही सुन्दर.

आदरणीय मिथिलेश जी, अंतिम शेर पर अलग से दाद देता हूँ, बहुत बहुत बधाई इस खुबसूरत ग़ज़ल पर.

Comment by kanta roy on October 21, 2015 at 11:38pm

धूप की तकसीम में कुछ तो हुआ है देखना
आज फिर सूरज सवालों में घिरा है देखना।।।। वाह ! क्या खूब शेर हुई है ये। लाजवाब !! बहुत खूब ग़ज़ल कही है आपने आदरणीय मिथिलेश जी। बधाई हो !


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on October 21, 2015 at 8:01pm
बहुत बढ़िया आदरणीय मिथिलेशजी सादर बधाई आपको। एक बात आपसे साझा करना चाहूँगा आमतौर पर समुद्री तूफान को तलातुम कहा जाता है इस लिहाज से तलातुम वाले शेर में और अच्छी बात कही जा सकती है।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on October 21, 2015 at 4:37pm

निवेदन है कि कृपया मतला इस तरह पढ़ा जावे-

धूप की तकसीम में कुछ तो हुआ है देखना

आज फिर सूरज सवालों से घिरा है देखना

कृपया ध्यान दे...

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