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अश्कों का मैं गरीब के सागर समेट लूँ (तरही ग़ज़ल 'राज ')

२२१  २१२१  १२२१   २१२

बलवाइयों के होंसले जाकर समेट लूँ

मासूम गर्दनों पे हैं  खंजर समेट लूँ

 

आये न बददुआ कभी मेरी जुबान  पे

गलती से आ गई तो भी अन्दर समेट लूँ

 

उम्मीद से बनाया हैं बच्चे ने रेत का   

लहरों वहीँ रुको मैं जरा घर समेट लूँ

 

परवाज आज भर रहा पाखी नई नई 

आँखों की चिलमनों में ये मंजर समेट लूँ

 

जिन्दा रहे यकीन मुहब्बत के नाम पर  

फेंके हैं दोस्तों ने जो पत्थर समेट लूँ

 

  ए तितलियों सँभाल के रक्खा उन्हें कहाँ 

 यादें वो बचपने की मैं आकर समेट लूँ

 

जद्दो जहद में जीस्त की हासिल हुए मुझे

उस पर हुजूर चाहते मैं पर समेट लूँ 

मुझको मेरे खुदा तू जरा बख्श दे वजूद

अश्कों का मैं गरीब के सागर समेट लूँ 

मौलिक एवं अप्रकाशित 

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on October 28, 2015 at 8:55pm

मिथिलेश भैया ,आपकी इस विस्तृत समीक्षा से अभिभूत हुई ,मेरा उत्साह कई गुना बढ़ गया मेरी मेहनत सफल हुई तहे दिल से आभार आपका |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on October 28, 2015 at 8:53pm

आ०  डॉ ०  गोपाल भाई जी ,आपको ग़ज़ल पसंद आई आपकी प्रतिक्रिया से बहुत प्रसन्न हूँ मेरा लिखना सार्थक हुआ तहे दिल से आभार आपका सादर .


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on October 28, 2015 at 1:45pm

आदरणीया राजेश दीदी बहुत ही शानदार ग़ज़ल हुई है जब इसे गुनगुनाया तो दिल खुश हो गया. तकनिकी समस्या के चलते टीप विलम्ब से कर रहा हूँ. ग़ज़ल के सभी अशआर एक से बढकर एक हुए है. इस शानदार ग़ज़ल पर शेर दर शेर दाद हाज़िर है- 

बलवाइयों के होंसले जाकर समेट लूँ

मासूम गर्दनों पे हैं  खंजर समेट लूँ............... बेहतरीन मतला 

 

आये न बददुआ कभी मेरी जुबान  पे

गलती से आ गई तो भी अन्दर समेट लूँ....................... वाह वाह वाह कमाल का शेर हुआ है ...बिलकुल नया अंदाज़ 

 

उम्मीद से बनाया हैं बच्चे ने रेत का   

लहरों वहीँ रुको मैं जरा घर समेट लूँ......................... वाह वाह दीदी क्या खूब चित्र खींचा है.

 

परवाज आज भर रहा पाखी नई नई 

आँखों की चिलमनों में ये मंजर समेट लूँ................ वाह वाह बहुत खूब 

 

जिन्दा रहे यकीन मुहब्बत के नाम पर  

फेंके हैं दोस्तों ने जो पत्थर समेट लूँ......................... कमाल कमाल ............ बहुत बढ़िया 

 

  ए तितलियों सँभाल के रक्खा उन्हें कहाँ 

 यादें वो बचपने की मैं आकर समेट लूँ..................  वाह वाह बहुत सुन्दर 

 

जद्दो जहद में जीस्त की हासिल हुए मुझे

उस पर हुजूर चाहते मैं पर समेट लूँ ................... वाह वाह दीदी ये भी बहुत बढ़िया शेर हुआ है 

मुझको मेरे खुदा तू जरा बख्श दे वजूद

अश्कों का मैं गरीब के सागर समेट लूँ ..................... हासिल ए ग़ज़ल  लाज़वाब 

दीदी इस ग़ज़ल पर दाद और मुबारकबाद कुबूल फरमाएं ...

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on October 27, 2015 at 8:28pm

बेहतरीन गजल हुयी है  दीदी श्री  मोती  के दाने की तरह धवल और सांचे में ढले हुए


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on October 27, 2015 at 8:09pm

मिथिलेश भैया ,आपका दिल से बहुत- बहुत आभार आपकी लम्बी चौड़ी समीक्षा की आदत सी पड़ गई है :-))))))

ग़ज़ल को इन्तजार रहेगा |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on October 27, 2015 at 8:07pm

आ० गिरिराज जी ,आप जैसे ग़ज़लकार से प्रतिक्रिया में दाद पाना बहुत मायने रखता है आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरा लिखना सार्थक हुआ तहे दिल से आभार आपका सादर .


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on October 27, 2015 at 8:05pm

आ० कांता जी ,आपकी प्रतिक्रिया पाकर मन झूम उठा मेरा लिखना सार्थक हो गया इस स्नेहसिक्त प्रतिक्रिया के लिए दिल से बहुत बहुत आभार |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on October 27, 2015 at 10:04am
शानदार ग़ज़ल हुई है दीदी। बधाई। पुनः वापिस आता हूँ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on October 27, 2015 at 7:11am

आदरणीया राजेश जी , दिल खुश कर दिया आपने । क्या गज़ल कही है , हरेक शेर क़ाबिले दाद है ! पूरी गज़ल के लिये दिल से मुबारक बाद पेश करता हूँ कुबूल कीजिये ॥

Comment by kanta roy on October 26, 2015 at 5:58pm

आये न बददुआ कभी मेरी जुबान पे
गलती से आ गई तो भी अन्दर समेट लूँ----ढेरों आशीशें समेटे हुए लाज़बाब शेर कही है आपने आदरणीया राजेश कुमारी जी।
उम्मीद से बनाया हैं बच्चे ने रेत का
लहरों वहीँ रुको मैं जरा घर समेट लूँ---ममता से ओतप्रोत बहुत ही कोमल भाव है इस पूरी ग़ज़ल में। बधाई आपको इस सुन्दरतम रचना के लिए।

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