तुम सोचते हो जो नहीं हूँ मैं
जो कुछ भी मैं हूँ वो यही हूँ मैं।
दुश्वारियाँ करती नहीं व्याकुल
आता है जीना जिंदगी हूँ मैं।
जो सोचना है सोचिए साहब
मैं जानता हूँ कि सही हूँ मैं।
साहिल से यारी मैं करूँ कैसे
जाना है आगे इक नदी हूँ मैं।
अच्छा किसे लगता भला जलना
पर क्या करूँ कि रोशनी हूँ मैं ।
नीरज कुमार नीर / मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
जी आदरणीय गिरिराज सर आपका हहार्दिक आभार .... आगे भी सहायता की उम्मीद करता हूँ ...
आपका हार्दिक आभार महर्षि जी
आदरणीय नीरज भाई , आपकी गज़ल पढ़ के बहुत अच्छा लगा , बहुत अच्छी गज़ल कही है , हार्दिक बधाइयाँ आपको ॥
बस मतले में सुधार आवश्यक है , नहीं और यही हम काफिया नहीं हो सकते , नहीं मे अनुस्वार बिन्दु है , इसके बदले बिना अनुस्वार के किसी शब्द की ज़रूरत है -- जैसे
तुम जो नहीं सोचते बस वही हूँ मैं
लाख बनावट में सादगी हूँ मैं --- या इसी तरह जो आपको सूझे , सही लगे ।
आ. Neeraj Kumar 'Neer'ji अच्छी प्रस्तुति हुई है |
बहुत शुक्रिया रिजवान भाई ।
बहुत बहुत आभार आदरणीया कांता राय जी
आपका हार्दिक आभार आदरणीय मिथिलेश जी ॥ आशा है आगे भी आपकी सलाह मिलती रहेगी
जो सोचना है सोचिए साहब
मैं जानता हूँ कि सही हूँ मैं। ---वाह !!! जिंदगी की कहानी जिंदगी की जुबानी। ....बएहटareen,बधाई स्वीकार करें आदरणीय नीरज जी।
आदरणीय नीरज जी मेरे कहे को मान देने के लिए आभार
इस ग़ज़ल में काफिया ई निर्धारित हुआ है लेकिन नहीं के ईं में बिंदी आ गई इसलिए काफिया निर्धारण त्रुटिपूर्ण हो रहा है
बाकी अशआर में ई काफिया का बखूबी निर्वहन हुआ है. आपको मतले के पहले मिसरे में से नहीं को बदलना होगा. इस विषय पर गुणीजन और अच्छे से मार्गदर्शन कर सकते है. फ़िलहाल अपनी बात के सापेक्ष इसे उदाहरण स्वरुप यूं कहने का प्रयास किया है-
तुम सोचते हो, जी वही हूँ मैं
देखो समूचा आदमी हूँ मैं। (केवल उदाहरण )
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