अंबर से मेघ नहीं बरसे
अब आँखों से ही बरसेंगे
शोक है
मनी नहीं खुशियाँ
गाँव में इस बार
दशहरा पर
असमय गर्भ पात हुआ है
गिरा है गर्भ
धान्य का धरा पर
कृषक के समक्ष
संकट विशाल है
पड़ा फिर से अकाल है
खाने के एक निवाले को
रमुआ के बच्चे तरसेंगे
व्यवस्था बहुत बीमार है
अकाल सरकारी त्योहार है
कमाने का खूब है
अवसर
बटेगी राहत की रेवड़ी
खा जाएँगे नेता, अफसर
शहर के बड़े बंगलों में
कहकहे व्हिस्की में घुलेंगे
तीन साल की पुरानी धोती
चार साल की फटी साड़ी
अब एक साल और
चलेगी
पर भूख का इलाज कहाँ है
भंडार में अनाज कहाँ है
छह साल की मुनियाँ
अपने पेट पर रख कर हाथ
मलेगी
टीवी पर चीखने वाले
बिना मुद्दे के ही गरजेंगे
रमेशर छोड़ेगा अब गाँव
जाएगा दिल्ली, सूरत, गुड़गांव
शहर में रखेगा पाँव
जिंदा मांस खाने वालों से
नोचवाएगा
तब जाकर
दो जून की रोटी पाएगा ।
पीछे गाँव में बीबी, बच्चे
मनी ऑर्डर की राह तकेंगे
पोस्ट मैन भी कमीशन लेगा
तब जाकर
चूल्हा जलेगा
बाबा बादल की आशा में
आसमान को सतत तकेंगे
नीरज कुमार नीर / मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय नीरज जी ग्रामीण जीवन के यथार्थ को अपने बहुत ही मार्मिक ढंग से शाब्दिक किया है. प्रस्तुति अपने मर्म को अभिव्यक्त करने में और उद्देश्य में सफल है. सीधे दिल में उतरती है. इस प्रस्तुति पर आपको हार्दिक बधाई
आपका हार्दिक आभार आदरणीय जयनित जी ...
आपका हार्दिक आभार आदरणीय अजय जी
मार्मिक रचना है,अति सुन्दर वर्णन।बधाइयाँ।
माननीय समर कबीर साहब आपके समर्थन से उत्साह बहुत बढ़ा .... बहुत बहुत शुक्रिया ...
आदरणीया प्रतिभा पांडे जी आपको कविता पसंद आई इससे लिखना सार्थक हुआ... हार्दिक आभार इस प्रोत्साहन हेतू ...
रमेशर छोड़ेगा अब गाँव
जाएगा दिल्ली, सूरत, गुड़गांव
शहर में रखेगा पाँव
जिंदा मांस खाने वालों से
नोचवाएगा........ व्यवस्था बदलने के नाम पर छलावे चलते रहेंगे ,बधाई इस सार्थक नव गीत पर आपको आदरणीय नीरज जी
आपको कविता पसंद आई आपका बहुत आभार अदरणीया कांता जी
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