221—2122—221--2122 |
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संसार हो गया है, अब अंगहीन जैसे |
सब लोग सोचते है, केवल मशीन जैसे |
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ये जात ही जुदा है, बस नाम ‘लोकसेवक’ |
मिलते है सबसे अक्सर, गद्दी-नशीन जैसे |
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जब से दिखी वो छत पर, सूरत हसीन यारो |
ये चश्में हो गए हैं, कुछ दूरबीन जैसे |
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ग़मगीन जिंदगी को, आराम मिल गया है |
फन के नशे में डूबे, फिर आफरीन जैसे |
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हिम्मत से जब वरक पर, सच नौजवां लिखे तो |
तारीख भी बदल दे, इक आलपीन जैसे |
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ऐसे निजाम से भी अब क्या सवाल करना |
देते जवाब वो भी ढुलमुल-यकीन जैसे |
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इस वक़्त ने मरासिम, कितने बदल दिए है |
अपनी रही है कुरबत, पर्दानशीन जैसे |
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बाज़ार हावी हम पर, जब से हुआ है यारो |
आँसू भी आ रहे हैं, अब ग्लीसरीन जैसे |
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खुशियाँ मिले तभी तक, क़दमों में आसमां है |
हमने ग़मों को पाया, सिर पे जमीन जैसे |
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वो आँसुओं से मेरे, है आचमन को राजी |
गिनते सदा रहे जो, केवल मलीन जैसे |
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खुशबू के जिस्म पर जो लिखता है नाम मेरा |
उसकी भी शख्सियत में, है यासमीन जैसे |
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हालाते-मुल्क देखा तो ये ख़याल आया |
गांधी जी हार बैठे, बन्दर वो तीन जैसे |
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Comment
आदरणीय रवि जी ग़ज़ल के मुखर अनुमोदन, सराहना और सार्थक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. आपका अनुमोदन मेरे लिए बहुत मायने रखता है. आपकी सराहना सदैव प्रेरित करती है.आपका बहुत बहुत धन्यवाद
आदरणीय अजय जी ग़ज़ल के मुखर अनुमोदन के लिए हार्दिक आभार
आदरणीय मिथिलेश जी नमस्कार आप तो नियमित ग़ज़ले पेश करते रहते है मंच पर हम ही समय आज कल कुछ कम दे पा र है आफिस की मसरुफियत आप भी समझ सकते है खैर ग़ज़ल पर आते है ।
जब से दिखी वो छत पर, सूरत हसीन यारो
ये चश्में हो गए हैं, कुछ दूरबीन जैसे ..... वाह वाह क्या नजरिया है रवायती अंदाज में नये पन की खुश्बू खूबसूरत शेर है बधाई
बाज़ार हावी हम पर, जब से हुआ है यारो
आँसू भी आ रहे हैं, अब ग्लीसरीन जैसे सुन्दर शेर है बाजार वाद और आम आदमी की कशमकश का नया चित्रण काफिये का सुन्दर प्रयोग
पूरी ग़ज़ल पर दिली दाद कुबूल करें कई शेर है तो कुछ ज्यादा अच्छे लगना लाजिमी है हमें उपरोक्त वर्णित दो शेर बेहद पंसद आये उनके लिये अलग से पुन: बधाई स्वीकार करिये
वाह वाह।। मिथलेश सर गजल ने मन मोह लिया। बहुत शानदार ।
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