2122---2122---2122---212 |
|
दौर बदला है, बदल जा, ऐ सुखनवर साथ चल |
सोचता है जिस जबां में, उस जबां में लिख ग़ज़ल |
|
जिंदगी बदलाव है...... गर थम गए तो है कज़ा |
आज ही किस्मत बदल जाए जरा खुद को बदल |
|
जब भरोसा होगा अपनी जात पर खुद आपको |
हौज़-ए-दिल में तब खिलेंगे कामयाबी के कँवल |
|
खौफजद को मारती है बारहा ये मौत पर |
जंगजू की जिंदगी में इक दफा देती दखल |
|
खौफ़ ने जब से शराफत को निकम्मा कर दिया |
कह दिया हमने सदाकत से कि तू खुद ही संभल |
|
खुद सुखन पैदा करेगी अपना इल्मे-फ़लसफ़ा |
तज्रिबा अपना सुना बस, छोड़ औरों की नक़ल |
|
कब जुरूरत दोस्तों को, दुश्मनों को कब यकीं? |
फिर सफाई दे रहे हो किसलिए यूं आजकल? |
|
इल्मे-दुनिया से हुए नापाक, हैरां, बदगुमां |
इस मुक़द्दस इल्म से पाया लताफ़त का फज़ल |
|
तब नसीहत का पिटारा बाअदब लौटा दिया |
जब मसाफ़े-जीस्त में नासेह देखे नाअहल |
|
आज फिर अहले-जहां का जश्ने-मातम हो गया |
ये सदा आलम में छायी- हो रहम दस्ते-अजल |
|
------------------------------------------------------------ |
|
लताफ़त- नम्रता, मुक़द्दस-आध्यात्मिक, मसाफ़े-जीस्त- जीवनयुद्ध, नाअहल-अक्षम/ क्षमताहीन |
Comment
आदरणीय जयनित जी, ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार बहुत बहुत धन्यवाद
आदरणीय सौरभ सर, आपकी दाद पाकर आश्वस्त हुआ हूँ. विलम्ब से प्रतिक्रिया के लिए क्षमा चाहता हूँ. इस प्रयास की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार बहुत बहुत धन्यवाद नमन
वाह! आ. मिथिलेश भाई,पहली बार ऐसी ग़ज़ल पढ़ रहा हूँ..
दिल से बधाई आपको।।
आदरणीय मिथिलेश भाई, ग़ज़ल अपनी बात कहती चल रही है. शेर अच्छे निकाले हैआपने. इनशेरों की तो बात ही ज़ुदा है -
खुद सुखन पैदा करेगी अपना इल्मे-फ़लसफ़ा |
तज्रिबा अपना सुना बस, छोड़ औरों की नक़ल |
|
कब जुरूरत दोस्तों को, दुश्मनों को कब यकीं? |
फिर सफाई दे रहे हो किसलिए यूं आजकल? |
|
दिल से दाद दे रहा हूँ.
आदरणीय विजय निकोर सर, ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार बहुत बहुत धन्यवाद नमन
आदरणीय बड़े भाई धर्मेन्द्र जी ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार
//
इल्मे-दुनिया से हुए नापाक, हैरां, बदगुमां |
इस मुक़द्दस इल्म से पाया लताफ़त का फज़ल// सारी गज़ल अच्छी लगी। शानदार गज़ल के भाव मन को छू गए। हार्दिक बधाई। |
आदरणीय मंसूरी जी, ग़ज़ल के प्रयास की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार
आज फिर अहले-जहां का जश्ने-मातम हो गया |
ये सदा आलम में छायी- हो रहम दस्ते-अजल |
बहुत खूब आदरनीय मिथिलेश जी! |
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online