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और,सारे देखने में हैं तमाशा (ग़ज़ल)

2122 2122 2122

भागता  ही जा रहा है बेतहाशा..
आदमी के हाथ लगती बस हताशा..

मुस्कराहट लब से गायब हो रही है,
पाँव फैलाए खड़ी जड़ तक निराशा..

नष्ट होती जा रही वो स्वर्ण-मूरत,
वर्षों में पुरखों ने जिसको था तराशा..

सुबह का भूला अभी लौटेगा शायद,
सूर्य की अंतिम किरण तक है ये आशा..

है न भक्तों को कफ़न तक भी मयस्सर,
देवता कुर्सी पे खाते हैं बताशा..

जान पंछी की निकलने पर तुली है,
और सारे देखने में हैं तमाशा..

(मौलिक व अप्रकाशित)
~
~
जयनित कुमार मेहता
अररिया,बिहार

Views: 569

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Comment by जयनित कुमार मेहता on May 12, 2016 at 6:44am
आदरणीय धर्मेन्द्र जी, आपके उद्गारों के लिए आभारी हूँ। सादर!!
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 23, 2016 at 1:49pm

क्या बात है भाई। आपकी ग़ज़लें भीड़ से अलग हैं। दाद कुबूल करें।

Comment by जयनित कुमार मेहता on November 23, 2015 at 8:44pm

आपका हार्दिक आभार, "जान" गोरखपुरी जी..

Comment by जयनित कुमार मेहता on November 23, 2015 at 8:43pm

आदरणीय मिथिलेश भाई जी, आपकी सलाह बिलकुल वाज़िब है! रचना पर प्रतिक्रिया के लिए बहुत-बहुत आभार आपका..!

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on November 23, 2015 at 6:44pm
बहुत खूब जयनित जी।बधाई।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on November 23, 2015 at 10:07am
आदरणीय जयनित भाई जी शानदार ग़ज़ल हुई है शेर दर शेर दाद हाज़िर है। कफ़न के साथ बताशा जम नहीं रहा है आप चाहें तो यूं कह सकते है-

है न भक्तों को निवाला भी मयस्सर,
देवता कुर्सी पे खाते हैं बताशा

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