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लड़ाई मज़हबी फिर से छिड़ी है (ग़ज़ल)

1222 1222 122

कभी है ग़म,कभी थोड़ी ख़ुशी है..
इसी का नाम ही तो ज़िन्दगी है..

हमें सौगात चाहत की मिली है..
ये पलकों पे जो थोड़ी-सी नमी है..

मुखौटे हर तरफ़ दिखते हैं मुझको,
कहीं दिखता नहीं क्यों आदमी है..?

फ़िज़ा में गूँजता हर ओर मातम,
कि फिर ससुराल में बेटी जली है..

सभी मौजूद हों महफ़िल में,फिर भी,
बहुत खलती मुझे तेरी कमी है..

दहल जाए न फिर इंसानियत 'जय',
लड़ाई मज़हबी फिर से छिड़ी है..
=====================

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by जयनित कुमार मेहता on February 23, 2016 at 10:22pm
आदरणीय राजेश कुमारी जी, हार्दिक आभार व्यक्त करता हूँ आपके प्रति।
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 23, 2016 at 1:49pm

अच्छी ग़ज़ल हुई है जयनित साहब, दाद कुबूल कीजिए।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on November 26, 2015 at 2:10pm

संशोधन के बाद क्या लाजबाब शेर हुआ है ..बहुत सुन्दर ग़ज़ल शेर दर शेर दाद कुबूलें जयनित जी 

Comment by Ravi Shukla on November 26, 2015 at 1:26pm

आदरणीय जयनित जी मेरे कहे को मान देने के लिये आभार ।

Comment by जयनित कुमार मेहता on November 26, 2015 at 1:05pm

आदरणीय नादिर ख़ान जी, आपको ग़ज़ल पसंद आई,इसके लिए मेरा दिल से धन्यवाद आपको। लगता है मेरा लिखना सार्थक हुआ..

Comment by नादिर ख़ान on November 26, 2015 at 10:56am

दहल जाए न फिर इंसानियत 'जय',
लड़ाई मज़हबी फिर से छिड़ी है.

सही कहा आदरनीय जयनित जी मज़हब की लड़ाई में सबसे ज्यादा नुक्सान इंसानियत को ही होता है।  उम्दा ग़ज़ल के लिए मुबारकबाद स्वीकार करें  ... 

Comment by जयनित कुमार मेहता on November 25, 2015 at 4:43pm

आदरणीय रवि जी, कहन की त्रुटियों पर ध्यान देने के लिए बहुत-बहुत आभार आपका। मैं ग़ज़ल में संशोधन कर रहा हूँ..

Comment by Ravi Shukla on November 25, 2015 at 4:14pm
आदरणीय जयनित जी । सुन्दर प्रवाह पूर्ण ग़ज़ल के लिए शेर दर शेर मुबारक बाद क़ुबूल करे । पिया के घर किसी बेटी के जाने से हर और मातम फैल जाने के कथन से विनम्रता पूर्वक मैं असहमत हूँ । पिता अपनी पुत्री को विदा करता है दुखी होना स्वाभाविक है किन्तु उसका एक पुनीत कर्तव्य भी है ये ।इसमें मातम की मौजूदगी थोड़ी असहज लगी । सादर ।

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