"लाहोल विला कुव्वत! जाने इतनी रात गए कहां आवारगी करता फिरता है ये लड़का।" अम्मीजान की कोशिश के बाद भी जफ़र के रात दूसरे पहर घर में घुसते ही अब्बूजान की आँख खुल गयी और वो बड़बड़ाने लगे।
"कुछ गलत न करे है मेरा ज़फर, अब सारा दिन किताबो में मगजमारी करने के बाद कुछ देर दोस्तों में गुजार ले तो हर्ज ही क्या है?" अम्मी ने उसकी तरफदारी की कोशिश की।
"तो वही जाहिल लोग रह गए है दोस्ती के लिए।" अब्बु ने अम्मी पर तंज भरी नज़र डालते हुए कहा।
"अब्बु अब ऐसे भी जाहिल न है वो लोग।" ज़फ़र चुप न रह पाया।
"तो रतजगा कर के फूटपाथ के लोगों में कौन सा रूहानी इल्म बांटते है तुम्हारे ये दोस्त।" अब्बु की आवाज थोड़ा तेज हो गयी।
"अब्बू आप अपनी पांच वक्ती नमाज में खुदा को पाने की कोशिश करते है ना!" जवाब की जगह ज़फ़र के सवाल से अब्बू के चेहरे पर लकीरे सी खिंच गयी। "तो....!"
"बस!.मैं और मेरे 'जाहिल' दोस्त भी इस हाड़ कंपाती सर्दी में फूटपाथ के लोगो में खुदा की तलाश कर लेते है।" बात पूरी कर ज़फर ने सिर झुका लिया। लेकिन अनायास ही उसके अब्बू का दिल भर आया और उन्होंने लपक कर जफर को गले लगा लिया।
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"विरेंदर वीर मेहता"
(मौलिक व् अप्रकाशित)
Comment
तंज कसते तल्खी से भरे अब्बू ने ज़फ़र से कुछ सकारात्मक सुनते झट गले से लगा लिया ! आदरणीय वीर मेहताजी, इस तरह के प्रस्तुतीकरण प्रस्तुतियों को व्यावहारिकता से दूर करते हैं. लघुकथाएँ भी कथाओं का ही प्रारूप हैं. इनमें नाटकीयता का होना आवश्यक है, लेकिन ऐसी नहीं.
विश्वास है आप मेरे कहे का अर्थ समझ रहे हैं. बाकी, ठीक है. शुभकामनाएँ
वाह्ह्ह शानदार लघु कथा ..बच्चे भले अच्छे काम भी करें पर माँ बाप की चिंता भी जायज है माहौल ही ऐसा है आज देश का |
बहुत-बहुत बधाई आपको आ० वीर मेहता जी |
हार्दिक बधाई वीर मेहता जी!बेहतरीन लघुकथा!
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