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बिकाऊ प्रार्थना - लघुकथा

सब उसे पागल कहते थे, लेकिन एक बुद्धिजीवी का दिमाग उसे पागल नहीं मानता था|
आज उस बुद्धिजीवी ने देखा कि वो एक मंदिर में गया, वहां नमाज़ पढ़ी|
फिर एक गुरूद्वारे में गया और वहां कैरोल गाया|
और एक गिरजे में गया और आरती की|
फिर एक मस्जिद में गया और वहाँ अरदास की|
आखिर में अपनी जगह पर जाकर बहुत रोया,
बुद्धिजीवी ने कारण पूछा तो उसके उत्तर में भी एक प्रश्न था, "हर धार्मिक-स्थल पर दान दिया था| वो बिकता तो है, लेकिन मिलता कहाँ है?"
बुद्धिजीवी समझ गया वो पागल ही था|

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on December 19, 2015 at 6:50pm

रचना  को  पसंद करने  और  अपनी टिप्पणी द्वारा मेरा मनोबल  बढाने  हेतु हार्दिक आभार  आदरणीय Sheikh Shahzad Usmani जी  साहब  और  आदरणीया  Nita Kasar जी |

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on December 12, 2015 at 10:36pm
सर, इस बार और भी गहरी हो गई। तीन बार पढ़ ली। शीर्षक ने कथा का अंत समझने में सहायता की। प्रायोगिक दर्शनशास्त्र व प्रायोगिक मनोविज्ञान के उत्कृष्ट सम्मिश्रण से युक्त समसामयिक सार्थक भाव पूर्ण कृति के लिए हृदयतल से बहुत बहुत बधाई आपको आदरणीय चन्द्रेश कुमार छतलानी जी। "दिल मांगे और"
Comment by Nita Kasar on December 12, 2015 at 9:29pm
बुद्धिजीवी उसे पागल नही मानता उसने जो देखा तो वह उसे सांप्रदायिक सद्भाव का पुजारी नजर आया वह अपनी जगह पर आकर रोया कि उसे पागल समझने वाले लोग क्या हर धर्म को सम्मान देते है?जो प्रश्न उसने पूछा कोई पागल नही पूछ सकता ।पर जब लोग मानते बातों बुद्धिजीवी ने उसे पागल समझा ।वाकई आज प्रार्थना बिकाऊ हो गई ।दार्शनिक अंदाज से भरपूर कथा के लिये बधाई आद०चन्द्रेश जी ।

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