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निश्छल प्रेम - लघुकथा

वो अकेली बैठी रो रही थी, जंगली जानवरों से उसका रोना बर्दाश्त नहीं हुआ, वो उसके पास जाकर उसका दुःख पूछने लगे|

उसने कहा, "मैं उससे बहुत प्रेम करती हूँ, लेकिन उसे केवल मेरी खूबसूरती से ही प्रेम है, और वो ही मेरी सुन्दरता नष्ट कर रहा है, पता नहीं कैसे-कैसे रासायनिक द्रव और विष समान कचरा युक्त जल मुझे पीना होता है, उसके फैलाये धुंए से मैं क्षीण और कुरूप होती जा रही हूँ| उसके मचाये शोर से बहुत घबरा जाती हूँ, क्या करूँ?"

फिर उसने तितली से कहा, "तुम जिन फूलों पर जाती थी, उसे भी तोड़ देता है|"
भालू से कहा, "शहद के छत्ते भी वही नष्ट कर रहा है|"
और बगुले से कहा, "पानी की मछलियाँ भी वो ही ले जाता है|"
और हाथी से कहा, "तुम दूर ही रहना, नहीं तो तुम्हें बेच देगा|"

इतने में आदमी आ गया, उसे देखकर सारे जानवर भाग गये, आदमी ने उसे देखा, उसके पास गया और कहा, "तुम कितनी खूबसूरत हो..."

और यह जानते हुए भी कि उसका शोषण होगा, 'प्रकृति' चुपचाप उसका हाथ पकड़ कर चल दी|

(मौलिक और अप्रकाशित)

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Comment by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on December 17, 2015 at 12:38pm

हृदय से आभार आदरणीय विजय निकोरे जी सर !

Comment by vijay nikore on December 16, 2015 at 2:57pm

इस अच्छी लघु कथा के लिए हार्दिक बधाई, आदरणीय चंद्रेश जी।

Comment by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on December 9, 2015 at 11:48am

आदरणीया  Rahila जी, आदरणीय Sheikh Shahzad Usmani साहब, आदरणीया  Nita Kasar  जी, आदरणीया kanta roy जी, आदरणीया meena pandey जी, आदरणीय Sunil Verma जी, आप सभी का तहे दिल से शुक्रिया, आपने रचना पर टिप्पणी कर मेरे मनोबल  को बहुत बढाया है| निवेदन है कि ऐसे ही स्नेह बनाये रखें| सादर, 

Comment by meena pandey on December 8, 2015 at 1:19am

बहुत बधाई इस रचना के लिए आदरणीय चंद्रेश जी 

Comment by kanta roy on December 7, 2015 at 6:57pm

और यह जानते हुए भी कि उसका शोषण होगा, 'प्रकृति' चुपचाप उसका हाथ पकड़ कर चल दी|-----गज़ब की चीज लिख दी है आपने आदरणीय चंद्रेश जी , पढ़कर एकदम से स्तब्ध हो उठी। ढेरो बधाई आपको।

Comment by Nita Kasar on December 7, 2015 at 12:20pm
प्रकृति के साथ जो सलूक मानव ने किया कितने वेदना सह रही वह लाचारी के साथ । ।परिणामत:प्राकृतिक आपदाओं के घेरे में आकर उसके ही वजूद पर ख़तरा बढ़ गया है आखिर प्रकृति का दोहन इस तरह ही चलता रहा तो मानव का साँस लेना दूर हो जायेगा ।अभी नही जागा तो जाने कब जागेगा मानव ।बेहद सारगर्भित व संवेदनशील कथा के लिये दिली बधाई आ०चन्द्रेश जी
Comment by Sheikh Shahzad Usmani on December 7, 2015 at 10:49am
बहुत उम्दा व उत्कृष्ट प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत बधाई आपको आदरणीय चन्द्रेश कुमार छतलानी जी। मानव और प्रकृति का तालमेल, कभी तकरार, कभी प्यार, कभी अत्याचार तो कभी कल्याण, सुविधा और दुविधा का अद्भुत मेलजोल !
Comment by Rahila on December 7, 2015 at 10:47am
अद्वितीय लेखन आदरणीय चंद्रेश सर जी! बेह।द सटीक और उम्दा रचना हुई । बहुत बधाई आपको । सादर ।

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