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मेरे वश में है ही नहीं-ग़ज़ल (पंकज के मानसरोवर से)

22122-22122-2222-2212
उनसे ख़फ़ा हो करके रहूँ मैं, मेरे वश में है ही नहीं।
उनकी नज़र में आँसूं भरूँ मैं, मेरे वश में है ही नहीं।।

उनकी ख़ुशी का मालिक हूँ मैं, उनकी चाहत मेरी ख़ुशी।
कोई शिकन उस माथे पढूँ मैं, मेरे वश में है ही नहीं।।

नादान हैं वो मुझको पता है, मौसम का उन पर भी असर।
इल्ज़ाम उनके सर पे धरूँ मैं, मेरे वश में है ही नहीं।।

कैसे शिकायत उनसे करूँ मैं, वो कुछ ऐसे मिलते ही हैं।
उनकी अदा से कैसे बचूँ मैं, मेरे वश में है ही नहीं।।

कैसे भला कम कर दूँ मोहब्बत, कैसे उनको चाहूँ नहीं।
दिल से ज़ुदा हो करके जियूँ मैं, मेरे वश में है ही नहीं।।

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Comment by गिरिराज भंडारी on January 7, 2016 at 12:05pm

आदरणीय पंकज भाई , आपने गज़ल अच्छी कही है , आपको ग़ज़ल के लिये हार्दिक बधाइयाँ । बह्र के विष्य मे जानकारों से सलाह लेने की कोशिश की जियेगा , ये बह्र  पहली बार देख रहा हूँ , लेकिन अरूज का मुझे भी ज्ञान नही है , आ. वीनस भाई जी से सलाह लीजियेगा । आपको पुनः बधाई ।

Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on January 4, 2016 at 12:32pm
आदरणीय समर कबीर सर आप लोगों के शब्द मेरे लिए पोषक पदार्थ जैसे हैं, सादर धन्यवाद
Comment by Samar kabeer on January 4, 2016 at 10:46am
जनाब पंकज कुमार मिश्रा जी आदाब,इस अच्छी ग़ज़ल के लिये बधाई स्वीकार करें !

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