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शाखें गुल ख्वाब में खिली है अभी / गजल

शाखें गुल ख्वाब में खिली है अभी

इश्क में चोट ये नई है अभी

दिल है नादान कोई समझाये

आबरू -ए-वफ़ा बची है अभी

इस लुटे घर में कैसी आबादी

गैरों के सदके में बसी है अभी

बंध गए हैं हवा के पर सारे

क्यों दुआ बे असर हुई है अभी

राज नजरों नें आज जान लिया

गिरह ये कौन सी कसी है अभी

दिल सम्भल कर ज़रा धड़क मेरे

उम्र-ए-उलफ़त में तो कमी है अभी

सुर्ख जोड़ा पहेन के तेरी जाँ

तेरी महफिल में आ गई है अभी

मौलिक और अप्रकाशित

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Comment

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Comment by kanta roy on February 2, 2016 at 1:13pm

आभार आपको आदरणीय श्याम  नारायण जी ग़ज़ल को पसंद करने के लिए। 

Comment by kanta roy on February 2, 2016 at 1:11pm

मेरे प्रयास को सराहने के  लिए दिल से आभार आपको आदरणीय तेज वीर जी।  

Comment by kanta roy on February 2, 2016 at 1:09pm

आपने बिलकुल सही पकड़े हैं आदरणीय हरी प्रकाश जी। मैं इसी बहर को गुनगुनाकर लिख रही हूँ।
//दिल में एक लहर सी उठी है अभी //---------आपको मेरा ये प्रयास भाया , आभारी हूँ। सादर

Comment by Hari Prakash Dubey on February 2, 2016 at 2:25am

दिल सम्भल कर ज़रा धड़क मेरे

उम्र-ए-उलफ़त में तो कमी है अभी.....सुन्दर प्रयास ,सुन्दर रचना ,हार्दिक बधाई ! सादर 

कुछ तो नाजुक मिजाज हैं हम भी,
और ये चोट भी नई है अभी......

Comment by Shyam Narain Verma on January 28, 2016 at 6:19pm

इस खूबसूरत  रचना की हार्दिक बधाई

सादर 

Comment by TEJ VEER SINGH on January 27, 2016 at 7:45pm

हार्दिक बधाई आदरणीय कांता रॉय जी!बहुत सुंदर गज़ल!

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