शाखें गुल ख्वाब में खिली है अभी
इश्क में चोट ये नई है अभी
दिल है नादान कोई समझाये
आबरू -ए-वफ़ा बची है अभी
इस लुटे घर में कैसी आबादी
गैरों के सदके में बसी है अभी
बंध गए हैं हवा के पर सारे
क्यों दुआ बे असर हुई है अभी
राज नजरों नें आज जान लिया
गिरह ये कौन सी कसी है अभी
दिल सम्भल कर ज़रा धड़क मेरे
उम्र-ए-उलफ़त में तो कमी है अभी
सुर्ख जोड़ा पहेन के तेरी जाँ
तेरी महफिल में आ गई है अभी
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
आभार आपको आदरणीय श्याम नारायण जी ग़ज़ल को पसंद करने के लिए।
मेरे प्रयास को सराहने के लिए दिल से आभार आपको आदरणीय तेज वीर जी।
आपने बिलकुल सही पकड़े हैं आदरणीय हरी प्रकाश जी। मैं इसी बहर को गुनगुनाकर लिख रही हूँ।
//दिल में एक लहर सी उठी है अभी //---------आपको मेरा ये प्रयास भाया , आभारी हूँ। सादर
दिल सम्भल कर ज़रा धड़क मेरे
उम्र-ए-उलफ़त में तो कमी है अभी.....सुन्दर प्रयास ,सुन्दर रचना ,हार्दिक बधाई ! सादर
कुछ तो नाजुक मिजाज हैं हम भी,
और ये चोट भी नई है अभी......
इस खूबसूरत रचना की हार्दिक बधाई सादर |
हार्दिक बधाई आदरणीय कांता रॉय जी!बहुत सुंदर गज़ल!
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