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काम सारे

ख़त्म करके

रुक गई बहती नदी

ओढ़ कर

कुहरे की चादर

देर तक सोती रही

 

सूर्य बाबा

उठ सवेरे

हाथ मुँह धो आ गये

जो दिखा उनको

उसी से

चाय माँगे जा रहे

 

धूप कमरे में घुसी

तो हड़बड़ाकर

उठ गई

 

गर्म होते

सूर्य बाबा ने

कहा कुछ धूप से

धूप तो

सब जानती थी

गुदगुदा आई उसे

 

उठ गई

झटपट नहाकर

वो रसोई में घुसी

 

चाय पीकर

सूर्य बाबा ने कहा

जीती रहो

खाईयाँ

दो पर्वतों के बीच की

सीती रहो

 

मुस्कुरा चंचल नदी

सबको जगाने चल पड़ी

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Comment by मिथिलेश वामनकर on February 4, 2016 at 12:24am

आदरणीय बड़े भाई धर्मेंद्र जी, बहुत सुन्दर नवगीत लिखा है आपने. लयात्मकता मुग्ध कर गई. इस प्रस्तुती हेतु हार्दिक बधाई. सादर 

Comment by TEJ VEER SINGH on February 3, 2016 at 12:34pm

हार्दिक बधाई आदरणीय धर्मेंद्र कुमार  सिंह जी!बेहतरीन प्रस्तुति!

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