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तुम्हारी सोच में फिरका -ग़ज़ल -लक्ष्मण धामी "मुसाफिर "

1222    1222    1222    1222

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सदा सम्मान  इकतरफा  कहाँ तक  फूल  को दोगे
तिरस्कारों  की हर गठरी  कहाँ  तक शूल को दोगे /1

उठेगी  तो करेगी  सिर से  पाँवों तक बहुत गँदला
अगर तुम प्यार का कुछ जल नहीं पगधूल को दोगे /2

नदी  आवारगी  में  नित  उजाड़े  खेत  औ  बस्ती
कहाँ तक दोष इसका  भी कहो  तुम कूल को दोगे /3

तुम्हारी  सोच  में  फिरके  उन्हें ही पोसते हो नित
सजा  तसलीमा  रूश्दी को  दुआ मकबूल को दोगे /4

अगर चाहे भी वो दिल से बदल फितरत को डालू पर
पता  है   एक  भी  मौका  नहीं  तुम  शूल  को  दोगे /5

कहा  है सच  बुजुर्गो ने  सुलझ जाएगा हर मसला
जरा  सा वक्त  गर  अपनी   पुरानी  भूल को दोगे /6

कहाँ  जीवन  में  रंगत  कुछ बचेगी  यार बतलाओ
अगर  तरजीह  राहों   में   हवा   अनुकूल  को  दोगे /7

ये जीवन  नाम  है  उसका  जहाँ  अच्छा बुरा सब है
मगर  पतवार  की  गलती  सजा  मस्तूल को दोगे ? /8
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मौलिक और अप्रकाशित

लक्ष्मण धामी "मुसाफिर "

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Comment

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Comment by Samar kabeer on February 9, 2016 at 2:28pm
जनाब लक्ष्मण धामी 'मुसाफ़िर'जी आदाब,बहुत ख़ूबसूरत ग़ज़ल कही आपने मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं !
छटे शैर में सही शब्द है "मसअला"देखियेगा |
Comment by Shyam Narain Verma on February 9, 2016 at 1:01pm
बहुत उम्दा , हार्दिक बधाई । सादर

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