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गूंगी गुड़िया ....


गूंगी गुड़िया ....

कितनी प्रसन्न दिख रही हो
सुनहरे बाल
छोटी सी फ्रॉक
छोटे छोटे पांवों में
लाल रंग की बैली
नटखट आँखें
नृत्य मुद्रा में फ़ैली दोनों बाहें
बिन बोले ही तुम
कितने सुंदर ढंग से
अपने भावों का
सम्प्रेषण कर रही हो

तुम पर
किसी मौसम का
कोई असर नहीं होता
सदैव मुस्कुराती हो
गुड़िया हो न !
शीशे की अलमारी में बंद रह के भी
सदा मुस्कुराती हो//

मैं भी बुल्कुल तुम्हारी तरह
अपने पापा के गुड़िया थी
हंसती थी , चिल्लाती थी
नटखट थी
थोड़ी ज़िद्दी भी थी
अपने पंखों से
आसमान छूना चाहती थी

क्या खबर थी
ये मेहँदी
मेरे हथेलियों की रेखाओं को
भाग्यहीन कर देगी
गृहस्थी के दायित्व
मेरे पंखों से
उनकी उड़ान छीन लेंगे
मेरी मुस्कराहट
हालात की गर्द में
खो जायेगी
जीवन की आपा धापी में
एक जीवंत गुड़िया
दीवारों के शो केस में
जकड़ दी जाएगी//

तुम बेजान हो
बस इसीलिये मुस्कुराती हो
सदियों से तुम
गुड़िया कहलाती हो//

मैं बेजान सी हूँ 

पाबंदियों में मुस्कुराती हूँ
आज ! हालात बदलते ही
अपने ही आँगन में
अंजानी सी आती हूँ
न चीखती हूँ न ज़िद्द करती हूँ
मैं बस गुड़िया से
गूंगी गुड़िया बन जाती हूँ//

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by Sushil Sarna on February 27, 2016 at 7:37pm

आदरणीय राहिला जी प्रस्तुति में निहित भावों को आत्मीय स्वीकृति देती आपकी स्नेहिल प्रशंसा का दिल से आभार। 

Comment by Rahila on February 25, 2016 at 9:32pm
आपने अपनी रचना से मुझे चकित ही कर दिया आदरणीय सर जी! क्या कोई पुरूष ,स्त्री के दर्द को इतनी गहराई से समझ सकता है । आपने तो पूरा हाल यूं शब्दों में ढाल दिया जैसे स्वंय का अनुभव हो । इस उत्कृष्ट रचना के लिये बहुत बधाई । सादर नमन ।

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