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"कुण्डलिया"

साजे उर अहि-माल तुम, हृदय बसो गिरिजेश।
उमा-सहित तुमको नमन, हे! व्योमेश महेश।।
हे! व्योमेश महेश, केश से निकली गंगा।
नाचें सुर-नर-शेष, धिनक-धिन बजे मृदंगा।।
भंग रमे तन-भस्म, डमाडम डमरू बाजे।
हरो जनों के कष्ट, शीश पर विधु को साजे।।

-रामबली गुप्ता
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by रामबली गुप्ता on March 9, 2016 at 9:04pm
हार्दिक आभार शिरोमणि सर
Comment by रामबली गुप्ता on March 9, 2016 at 9:02pm
हार्दिक आभार आदरणीय केवल सर
कुछ संशोधन सुझाएँ यदि संभव हो अति कृपा होगी।
Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on March 9, 2016 at 8:50pm

आ० रामबली  भाई जी,   आपकी प्रार्थना को सार्थक करती कुंडलिया अच्छी लगी. कुछ और अच्छा हो सकता था, फिलहाल बधाई स्वीकारें. सादर

Comment by ram shiromani pathak on March 9, 2016 at 6:27pm
सुन्दर लिखा आपने आदरणीय।।बधाई
Comment by रामबली गुप्ता on March 8, 2016 at 2:29pm
हार्दिक आभार
Comment by Ravi Shukla on March 8, 2016 at 1:03pm

आदरणीय राम बली  जी सुन्दर कुण्डलिया छंद हुवा है आपको बधाई। 

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